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कांवड़ यात्रा - भाग एक

जैसे-जैसे सावन में शिवरात्रि आती है, वैसे-वैसे मन में कांवड़ लाने की हिलोर सी उठने लगती है। मैं पूरे साल कभी भी भगवान् का नाम नहीं लेता हूँ, ना ही कभी धूपबत्ती-अगरबत्ती जलाता हूँ, ना किसी मंदिर में जाकर मत्था टेकता हूँ, ना प्रसाद चढाता हूँ, ना दान करता हूँ। लेकिन सावन आते ही - चलो चलो हरिद्वार।
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मोहल्ले के जितने भी हमउम्र और कमउम्र लडकें हैं, सभी ने तय किया कि 14 जुलाई को हरिद्वार के लिए रवाना होंगे, 15 को वहीं पर रहेंगे और 16 को कांवड़ उठा लेंगे। 19 तारीख तक पुरा महादेव बागपत पहुंचकर जल चढा देंगे। अपनी 15-16 लड़कों की टोली 14 जुलाई को सुबह दस बजे तक मोहल्ले के मंदिर प्रांगण में इकठ्ठा हो गयी। मेरे साथ छोटा भाई आशु भी था। टोली क्या पूरा मोहल्ला ही साथ था। शिवजी से कुशल यात्रा की विनती करके, बड़ों के आशीर्वाद लेकर, बम-बम के जयकारे लगते हुए यह टोली बस स्टैंड की तरफ बढ़ चली।


गाँव से बस पकड़कर मेरठ पहुंचे। उस दिन यू पी रोडवेज का चक्का जाम था। इसलिए बिना समय गँवाए ही लालकुर्ती चौक से एक प्राइवेट बस पर जा चढ़े। छत पर कांवड़ रखकर बांधी तो हम भी छत पर ही बैठ गए। छत पर बैठना भी जरुरी था। क्योंकि सीटें तो सारी भर चुकी थीं। फिर दूसरी बस का भरोसा नहीं था कब मिले। दूसरे राज्यों की रोडवेज बसें पीछे से ही भरकर आती हैं।
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चूंकि हरिद्वार जाने वाला परंपरागत रास्ता कांवडियों की वजह से बड़े वाहनों के लिए बंद कर दिया जाता है। इसलिए बसें बिजनौर होते हुए हरिद्वार जाती हैं। यह रास्ता हरियाली से भरपूर है। दो घंटे में ही बिजनौर बैराज पर पहुँच गए। यहाँ गंगा का पानी रोककर बैराज बनाया गया है और नहरें निकाली गयी हैं। बिजनौर से नजीबाबाद ना जाकर मंडावर रोड से निकल गए।
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यह बस मेरठ में सरधना रोड पर चलने वाली प्राइवेट बस थी, इसलिए यू पी-उत्तराखंड बॉर्डर पर चिडियापुर चेकपोस्ट पर बस को रोक लिया गया लेकिन ड्राईवर ने तुंरत ही ले-देकर बस को निकाल लिया। इसके बाद शाम पांच बजे तक हम चंडीघाट पुल पर थे।
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यहाँ से दो किलोमीटर पैदल चलकर हर की पैडी के पास बिजलीघर में पहुंचे। यहीं हमने अपनी-अपनी कांवड़ रख दी। यहाँ पहुँचते ही चारों तरफ विराजमान देवी देवता बुलाने लगते हैं। हमें उनका भी तकादा पूरा करना पड़ता है। ऑटो किया और कनखल जा पहुंचे। यहाँ शिवजी के ससुर व सती के पिता दक्ष का मंदिर है। पास से ही गंगा बहती है। यहीं वो जगह है जहाँ दक्ष प्रजापति ने यज्ञ किया था और उसमे शिवजी को आमंत्रित नहीं किया था। आगे की कथा तो तुम्हे पता ही होगी।
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गंगा नहाकर जल चढाया। इसके बाद मैं तो चला गया बहादराबाद स्थित अपने पुराने कमरे पर डोनू व सचिन के पास। आशू बाकी लड़कों के साथ मंदिर के पास ही सो गया। सुबह उठकर वे सभी चंडी देवी मंदिर चले गए। जब तक वे वापस आये तब तक मैं भी बहादराबाद से हरिद्वार पहुँच गया।
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वापस आकर आशू कहने लगा कि चल भाई, नीलकंठ चलते हैं। उस समय मौसम ख़राब था और ऋषिकेश की दिशा में भयानक काले बादल भी थे। सोचा कि ऐसी परिस्थिति में चलें या ना चलें, हाँ चल, ना चल, हाँ चल, ना चल। और आखिरकार चल ही पड़े। रात बारह बजे वहां से वापस आये। नींद तो आ ही रही थी। हर की पैडी क्षेत्र में कहीं किसी पुल पर भी लेटने तक की जगह नहीं मिली। बड़ी मुश्किल से एक पुल पर जरा सी जगह मिल सकी। कांवडिये ही कांवडिये सोये पड़े थे।
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सुबह हुई। मेरे पास जो पुरानी कांवड़ थी, वो तो दे दी मैंने आशू को। खुद ले ली नयी कांवड़ 80 रूपये में। इसके बाद आशू अपनी कांवड़ को सजाने लगा। और मैं मंशा देवी का तकादा निपटाने चला गया। जब तक वहां से वापस आया, तब तक आशू अपनी कांवड़ सजा चुका था। एक बात और, हमारे साथ वाले सभी लड़के कांवड़ में जल भरके जा चुके थे। हम दोनों ही रह गए थे। दोनों भाई गंगा जी में खूब नहाये और कांवडों को भी नहलाया। छोटी-छोटी कनस्तरियों में जल भरा, धूपबत्ती जलाई, कांवड़ की पूजा की और दोपहर ग्यारह बजे भरी दोपहरी में कांवड़ उठाकर चल पड़े।
हरिद्वार के रास्ते में

दक्ष मन्दिर, कनखल, हरिद्वार

कनखल में गंगा स्नान

हरिद्वार में कांवडिये

जाटराम

मनसा देवी से हरिद्वार का नजारा

रात को इसी पुल पर सोये थे हम

हर की पैडी पर कांवडियों का हुजूम

एक डुबकी और

ख़ुद के साथ कांवड़ को भी नहलाकर पवित्र किया

और चल पड़े 150 किलोमीटर की पद यात्रा पर
16 जुलाई, 2009 । दोपहर ग्यारह बजे हम दोनों भाई कांवड़ उठाकर चल पड़े। हमारे साथ गाँव के जितने भी 'भोले' थे, सभी दो घंटे पहले जा चुके थे। हम पिछले चार सालों से काली पल्टन मंदिर मेरठ में जल चढाते थे, लेकिन इस बार इरादा था पुरा महादेव बागपत में चढाने का। आमतौर से भोले या तो नंगे पैर होते हैं या फिर चप्पल पहनते हैं लेकिन मैंने जूते पहने हुए थे। जूते पहनने से पैरों को सुकून मिलता है।
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आज हमने टारगेट बनाया रुड़की (30 किलोमीटर) पार करके मंगलौर (40 किलोमीटर) में रात्रि विश्राम करने का। लेकिन रात बारह बजे तक भी मंगलौर पहुंचना कोई आसान काम नहीं था।
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ग्यारह बजे हरिद्वार से चलकर साढे बारह बजे तक हम ज्वालापुर पहुँच गए। यहाँ आधे घंटे तक आराम किया। जिस समय एक बजे यहाँ से चले, तो जबरदस्त धूप व गर्मी थी। इरादा तो था दो बजे तक बहादराबाद पहुँचने का, लेकिन सूर्यदेव की वजह से ऐसा नहीं हो सका। बहादराबाद से तीन किलोमीटर पहले ही एक टेंट में जगह देखकर हमने अपनी पन्नी खोल ली। पन्नी ही हमारी बोरिया-बिस्तर थी। कमर सीधी करने के लिए लेटे तो नींद ही आ गयी। अब तक 8-9 किलोमीटर चल चुके थे।
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उठाने वाला कोई था नहीं, फिर भी साढे चार बजे आँख खुल गयी। शाम को इस समय भी अच्छी-खासी गर्मी थी। नहा-धोकर पांच बजे फिर से चलना शुरू कर दिया। घंटे भर में ही बहादराबाद पहुँच गए। यहाँ हमें कुछ हिजडे दिखे। कांवड़ लाते हिजडे। आज पहली बार हिजडों को भगवान का नाम लेते देखा था। इसके बाद तो दिन ढलता गया। अँधेरा बढ़ता गया और गर्मी भी कम होती गयी। यही वो समय होता है जब सबसे ज्यादा भोले सड़क पर होते हैं। हम भी अँधेरी रात होने के बावजूद अपनी पूरी स्पीड से चले जा रहे थे। हमारा नियम था कि एक घंटा तो जमकर चलो, उसके बाद आधा घंटा आराम करो। इस दौरान शरीर गरम रहे, चाय भी पी लेते थे।
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खैर, रात को बारह बजे तक मंगलौर तो नहीं पहुँच सके, रुड़की जरूर पहुँच गए। रुड़की एक बड़ा शहर है, हरिद्वार से तीस किलोमीटर दूर। हर भोले का पहला लक्ष्य होता है रुड़की। बड़ा शहर है तो सुविधाएं भी ज्यादा। स्ट्रीट लाइटों से चमकती चौडी-चौडी सड़कें। जब हम पहुंचे तो रुड़की सो रहा था। सड़क पर, गलियों में, बंद दुकानों-मकानों के सामने भोले ही सोये हुए थे। उन्हें देखकर नींद तो हमें भी आनी ही थी। लेकिन कहीं सही सी जगह नहीं मिली। आखिरकार जगह मिल गयी। एक दुकान के सामने थोडी सी जगह खाली थी। भला हो दुकानदार का, उसने वहां पर एक दरी बिछा रखी थी। दो-तीन भोले भी थे। दो हम पहुँच गए।
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कहते हैं कि भोलों को जो कुछ होना होता है, रुड़की तक हो जाता है। मेरे बाएं पैर में दो छाले पड़ चुके थे। आशु ने सुबह साढे पांच बजे ही उठा दिया। क्योंकि सुबह की ठंडक में जितना चल लें, उतना ही फायदा रहता है। उधर, कल जो 30 किलोमीटर चले थे, उसका नतीजा अब दिख रहा था- पैरों में अकडन। यह अकडन इतनी ज्यादा होती है कि जैसे ही चलना शुरू करते हैं, एक-एक कदम बड़ी मुश्किल से रखा जाता है। धीरे-धीरे चलते-चलते पैर में गर्माहट बढ़ने लगती है और तेजी भी बढ़ने लगती है।
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हम सवा छः बजे यहाँ से चले। सात बजे रेलवे का पुल पार करके नाश्ता किया और फिर बढ़ चले। इसके बाद रुके मंगलौर नहर के पुल पर। काफी तेज चलते हुए हम यहाँ पहुंचे थे। गाँव के उन भोलों को फोन मिलाया जो हमसे पहले निकल चुके थे, तो पता चला कि उन्होंने थोडी देर पहले ही रुड़की पार की है। यानी वे हमसे 6-7 किलोमीटर पीछे थे। असल में उनमे कुछ ऐसे भोले भी थे, जो पहली बार कांवड़ ला रहे थे। इसलिए वे धीरे-धीरे चल रहे थे। एक बात और, भीड़ इतनी ज्यादा होती है कि हमने कब उन्हें पीछे छोड़ दिया, पता ही नहीं चला।
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मंगलौर से ही मुरादनगर तक कांवड़ यात्रा मार्ग भी है गंगा नहर के किनारे-किनारे। लेकिन यह हमारे किसी काम का नहीं। यहाँ से चलकर साढे ग्यारह बजे मंडावली के पास पहुँच गए। यहाँ तक थकान व आलस व धूप-गर्मी हावी होने लगे थे, तो यहीं पर सो गए। पांच बजे उठे, नहा-धोकर फिर चल पड़े। शाम को साढे सात बजे तक गुरुकुल नारसन पार करके उत्तराखंड छोड़कर उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर गए। बॉर्डर से दो किलोमीटर चलकर पुरकाजी आता है। हालाँकि यह एक मुस्लिम प्रधान क़स्बा है, लेकिन यात्रा का पहला भंडारा यहीं पर मिला। हम कहाँ छोड़ने वाले थे। आलू की सब्जी, पूरी व चावल।
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खा-पीकर फिर चल पड़े। अँधेरा तो हो ही गया था। रात का टाइम और यहाँ से हमने चलने में जबरदस्त तेजी दिखाई। अगर हमारे पास मीटर होता तो वो हमारी स्पीड कम से कम साढे छः किलोमीटर प्रति घंटा बताता। भोले औसतन पांच की स्पीड से चलते हैं। यहाँ हम हवा के घोडे पर सवार थे। कोई भी हमसे आगे नहीं निकल रहा था, सबको पीछे छोड़ते हुए, दे दनादन दे दनादन। फलौदा व बरला गाँव कब निकल गए, पता ही नहीं चला। बरला गाँव से एक किलोमीटर आगे है बरला इंटर कालिज। यहाँ भोलों के खाने-पीने व ठहरने का बढ़िया इंतजाम होता है। कॉलेज के बरामदों में पंखे लगे होते हैं व दरी भी बिछी होती है। 17 जुलाई की रात को ग्यारह बजे हम यहाँ पहुंचे। बड़ी ही आसानी से सोने की जगह मिल गयी और हम सो गए।
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हम जो आज इतना तेज चले थे, इसका मुझे इतना नुकसान हुआ कि पूरे रास्ते परेशान रहा। दाहिना पैर जो दोपहर तक ठीक था, उसमे भी तीन मोटे-मोटे छाले पड़ गए थे। बाएं पैर में तो खैर दो ही छाले थे। एक बात और, आज हम करीब 40 किलोमीटर चले थे यानी हरिद्वार से 70 किलोमीटर।

रुड़की में सोकर उठते भोले

जीवन चलने का नाम

इस बार महिलाएं भी बहुत थीं

मंगलौर में नहर के किनारे

नहर की पटरी से जाते भोले

इन बड़ी कांवड़ और डीजे से रास्ता आसान हो जाता है

ये है हमारा अब तक का सफरनामा। लाल लाइन तो सड़क है, नीली नहर और काली रेलवे लाइन)

कांवड यात्रा श्रंखला


Comments

  1. कांवड लाने की बहुत बहुत बधाई. रास्तों पर कांवड लाते कांवडीये तो बहुत देखे. हरिद्वार से कांवड भरते हुए कांवडीयों के दर्शनों का सौभाग्य पहली बार मिला है.

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  2. Kaanvad bhi kafi sundar pasand ki aapne. Safal yatra ki badhai. Devghar (VAIDYANATH DHAM)ke to pede prasidh hain savan mein; Haridwar mein kaun sa prasad jyada prasidh hai !

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  3. बहुत सुंदर चित्रों से रोचक वृतांत लिखा आपने.

    रामराम.

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  4. जाते समय बस में क्यों गए? कवाड लेकर पैदल ही तो जाना था न?

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  5. ईश्वर आपकी मनोकामना पूर्ण करें।
    माता-पिता की सेवा करना जी।

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  6. घणी मेहनत का काम है यह यात्रा। शुभकामनायें।

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  7. मान गए जी। सुन्दर फोटो और अच्छा विवरण।

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  8. Bhakti mein waqai badi shakti hai. Bhagwan aapke man mein ye bhawna banaye rakhe. aage ki kadi ka intezaar rahega

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  9. देखने में बहुत आसान और मस्ती वाला लगता है काँवड़ लाने का अंदाज़.
    पर इतना आसान नहीं है ....आपकी यात्रा चित्र देखकर अति प्रसन्नता हुयी

    जय हो !!!

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