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करेरी झील के जानलेवा दर्शन

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25 मई 2011 की दोपहर थी। हम करेरी झील की तरफ जा रहे थे। रास्ते में एक जगह हमें केरल के किसी सेण्ट्रल स्कूल के बच्चे मिले। वे क्षेत्रीय पर्वतारोहण केन्द्र, धर्मशाला की तरफ से करेरी झील देखने जा रहे थे। उनकी कुल चार दिन की ट्रैकिंग थी। आज उन्हें झील से कम से कम पांच किलोमीटर पहले रुकना था, इसलिये वे मस्ती में चल रहे थे। हमें झील पर ही रुकना था, इसलिये हम भी उनके साथ धीरे-धीरे ही चल रहे थे। हमारा कोई नामलेवा तो था नहीं कि हमें नियत समय पर पहुंचकर वहां हाजिरी देनी थी। कभी भी पहुंचकर बस सो जाना था। स्लीपिंग बैग थे ही हमारे पास।

केरल वालों में पचास बच्चे थे, कुछ टीचर थे, एक गाइड था। सभी फर्राटेदार हिन्दी बोल रहे थे। गप्पू ने सोचा कि ये दक्षिण भारतीय हैं, हिन्दी नहीं जानते होंगे, उनसे अंग्रेजी में बात करने लगा। मैंने कहा कि ओये अंग्रेज, हिन्दी में बोल, ये लोग हिन्दी जानते हैं। कहने लगा कि नहीं मैं तो अपनी अंग्रेजी टेस्ट कर रहा हूं। वैसे भी इन्हें हिन्दी में दिक्कत होती होगी। तभी केरल की एक टीचर ने कहा कि हम सभी हिन्दी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। गप्पू सन्न।

रास्ते में एक जगह आती है जम्मू गोठ (JAMU GOTH)। गोठ का मतलब होता है पानी के किनारे एक खुली सी जगह। इस जगह का इस्तेमाल गद्दी लोग भेड-बकरियों के लिये करते हैं। कहते हैं कि गोठ पर गोबर और लीद भारी मात्रा में होती है। और वाकई जम्मू गोठ में भारी मात्रा में गोबर और लीद थी। इसी के पास लोहे का एक जर्जर पुल था। जम्मू गोठ से करीब तीन किलोमीटर पहले रास्ता नदी के किनारे-किनारे शुरू हो जाता है। गप्पू था ही नदी का शौकीन। रास्ता छोड नदी के बडे-बडे विशाल पत्थरों पर चलने लगा। एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर कूदना किसी नये बन्दे के लिये आसान नहीं होता लेकिन गप्पू भारी शरीर का मालिक होते हुए भी मजे से पत्थरों पर कूदता रहा और गोठ की तरफ बढता रहा। उसकी देखा-देखी मैं भी पत्थरों पर कूदना शुरू हो गया।

बिल्कुल सामने साढे चार हजार मीटर ऊंचे विराट पहाड सीना ताने खडे थे। अच्छा हां, इन पहाडों को धौलाधार के पहाड या धौलाधार पर्वतमाला कहते हैं। इनकी ऊंचाई पांच हजार मीटर से भी ज्यादा है। इन पर सालभर बर्फ जमी रहती है। डेढ सौ किलोमीटर दूर पठानकोट तक से यह बरफ दिखाई देती है। उत्तर भारत के मैदानी इलाके यानी पंजाब और धौलाधार के पहाडों के बीच में कांगडा की छोटी-छोटी पहाडियां बिखरी हुई हैं। इन पहाडियों की ऊंचाई हद से हद एक हजार मीटर तक है। कुल मिलाकर अगर पंजाब में खडे होकर देखें तो कांगडा के उस तरफ धौलाधार की विशाल दीवार है। जब हवाएं चलती हैं तो वे कांगडा की पहाडियों को तो बिना दिक्कत के पार कर लेती हैं लेकिन धौलाधार के पहाडों को लांघना उनके बस से बाहर की बात होती है। अगर हवाओं में जरा सी भी नमी है तो नतीजा क्या होगा, यह बताता हूं। धौलाधार के पहाडों से टकराकर ये ऊपर उठती हैं। जैसे-जैसे ऊपर उठती जाती हैं, ठण्डी होती जाती है और बादल का रूप ले लेती हैं। मूड बन जाये तो बरस भी जाती हैं। तो सीधी सी बात है कि यह बरसात धौलाधार के पहाडों में ही होती है। धर्मशाला और मैक्लोडगंज भी धौलाधार में ही हैं, इसलिये इन्हें हिमाचल का चेरापूंजी भी कहा जाता है। दोपहर बाद अक्सर बारिश हो जाया करती है।

उस दिन भी ऐसा ही हुआ। हमारे जम्मू गोठ पहुंचने से पहले ही पहाडों की चोटियों पर बादल दिखने शुरू हो गये। अपने अनुभव से मैंने जान लिया कि बारिश होगी लेकिन हम दोनों के पास रेनकोट थे इसलिये हम दिक्कत नहीं मान रहे थे। भूख लगने लगी तो तसल्ली से एक चट्टान पर बैठकर खाना खाया। हम करेरी गांव से खाना पैक करवाकर तो लाये नहीं थे। हमारे पास थे कुछ चने, बिस्कुट और नमकीन भुजिया। खाते रहे, पानी पीते रहे। तब तक केरल की टीम काफी आगे निकल गई।

जैसे ही जम्मू गोठ के पुल के पास पहुंचे, सीधे ओले पडने लगे। अचानक बारिश और ओले। गप्पू हैरान परेशान कि यह हो क्या रहा है। मैंने कहा कि कुछ नहीं हो रहा है, फटाफट रेनकोट पहन ले। बारिश रुकने का इंतजार करना भी गलत था क्योंकि हम ‘चेरापूंजी’ में थे। रेनकोट पहना, जम्मू गोठ का पुल पार किया और बढ चले। कुछ आगे जाने पर एक टेण्ट कालोनी मिली। केरल के सभी लोग यही रुक गये थे। अगर बारिश ना भी होती तो भी वे यही रुकते। झील यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर है।

यहां से आगे भयानक चढाई है। सारा रास्ता बडे बडे पत्थरों से अटा पडा और सीढियों युक्त। उस पर भी ऊपर से होती बारिश और ओले। पानी और ओले सीढियों पर गिरकर फिसलन पैदा कर रहे थे। अचानक सिर के ऊपर बिजली कौंधी और थोडी देर बाद जो गडगडाहट हुई, उसने हमारे अन्दर ऐसा खौफ बैठा दिया जो आखिर तक बैठा रहा। फिर तो गडगडाहट का सिलसिला चलता रहा। जैसे-जैसे हम ऊपर चढते रहे, गडगडाहट बढती गई। जब हम शहरों में चारों ओर से इंसानों से घिरे हों, और मानसून में कोई गडगडाहट हो जाती है तो भी एक खौफ बन जाता है। अन्दाजा लगाइये कि उस समय जबकि दूर दूर तक कोई नहीं था, हम जंगल में जा रहे थे तो हम पर क्या बीत रही होगी।

लगातार होते भयानक मौसम के बावजूद भी मैं बीच रास्ते में रुकना नहीं चाहता था। हम बडे-बडे पत्थरों के नीचे बनी छोटी गुफाओं में आराम से बैठ सकते थे। गप्पू भी चाहता था कि हम रुक जायें और बारिश रुकने का इंतजार करें। लेकिन मुझे लग रहा था कि यह बारिश कम से कम आधी रात तक नहीं रुकेगी। दूसरा कारण, बिजली लगातार कडक रही थी। मुझे डर था कि अगर यह इन ऊचे पहाडों की किसी चट्टान पर या पेड पर गिर गई तो चट्टान या पेड टूटकर लुढकने लगेंगे और अपने साथ दूसरी चीजों को भी लुढकाने लगेंगे। कहीं हम उनकी चपेट में ना आ जायें। तीसरा कारण, लगातार चलते रहने से हमारे शरीर में गर्मी थी। अगर हम रुक जाते हैं तो बारिश और ओलों के कारण, कुछ भीग भी जाने के कारण हमें इतनी ठण्ड लगेगी कि हम दोबारा उठ खडे होने लायक नहीं रहेंगे। हमारी स्थिति यह हो जायेगी कि जहां भी हम रुक जायेंगे वही पडे रहेंगे और रात काट देंगे।

गप्पू काफी देर तक साथ देता रहा। फिर पता नहीं बन्दे के दिमाग में क्या विचार आया। बोला कि अब आगे नहीं। यहीं कहीं रुक लो। हम लगातार ऊपर चढते जा रहे हैं यानी बादलों के पास जा रहे हैं। यानी हम पर बिजली गिरने की जबरदस्त सम्भावना है। ‘बिजली गिरने की सम्भावना’ यह तो मैंने सोचा ही नहीं था। आसपास ऊपर तक छोटे बडे पत्थर और चट्टानें ही थीं। नजर दौडाई तो नदी के उस तरफ एक बडी चट्टान के नीचे एक झौंपडी दिखी। अक्सर भेड-बकरी चराने वाले गद्दी यहां-वहां झौंपडी बना देते हैं। लेकिन पिछले दो-ढाई घण्टे से लगातार हो रही बारिश के कारण नदी अति वेग और उफान पर बह रही थी। अगले दिन जब हम वापस आये तो पता चला कि आज यह एक मीटर ऊपर बह रही थी। पार करने का सवाल ही नहीं था। तभी हमें अपने पास एक बडा पेड गिरा दिखा। हमने उसी के तने के नीचे शरण ले ली।

हमारे रुकते ही ओलों का जो क्रम शुरू हुआ, अगर हम चलते रहते तो बुरी तरह घायल हो सकते थे। डेढ-दो इंच मोटे ओले। एक ओला मेरे घुटने पर आकर लगा तो जान निकल गई। हम दोनों गिरे पेड के तने के नीचे बैठे रहे। गप्पू के ऊपर हालांकि पानी गिर रहा था, लेकिन हम ओलों से बचे हुए थे। दूसरी बात, जैसे ही हम बैठे तो शरीर की गर्मी निकलने लगी और ठण्ड लगने लगी। भले ही हमने रेनकोट पहन रखा था लेकिन फिर भी हम भीग गये थे। दोनों बुरी तरह कांपने लगे। मैंने गप्पू से कहा कि ओये, वो देख। उस तरफ एक झौंपडी है। वहां जरूर कोई होगा। कम से कम आग तो मिल ही जयेगी। बारिश कुछ कम होते ही गप्पू बोला कि वहीं चलते हैं। अब तक रास्ते में ओलों की मोटी सफेद चादर बिछ गई थी, रास्ता नहीं दिख रहा था। फिर नदी का वेग भी बहुत ज्यादा था। पता नहीं गप्पू किस मिट्टी का बना है, कई बार बचते-बचाते नदी पार कर ही गया। भयंकर वेग से बहती नदी के पानी में कुछ इंच नीचे डूबे पत्थरों पर पैर रखकर उधर कूदना था। हमारे पास खुद के पैरों से भी ज्यादा भरोसेमंद लठ था, जिसकी बदौलत हम उधर जा सके। जब तक मैंने नदी पार की, तब तक गप्पू झौंपडी में जा चुका था।

झौंपडी खाली थी, वहां कोई नहीं था। हां, सुरक्षित छत जरूर थी। अब हम भीग नहीं रहे थे। राख भी पडी थी। गप्पू माचिस ढूंढने लगा लेकिन नहीं मिली। हमारे बैगों में भी पानी जा चुका था इसलिये बाकी कपडे भी भीग गये थे। मैं घुटने पर सिर रखकर गोलमटोल सा होकर बैठ गया। इसलिये धीरे-धीरे ठण्ड जाती रही। जबकि गप्पू ने कपडे उतार दिये। बोला कि ये भीग गये हैं। इन्हें सुखाकर पहनूंगा। मैंने कहा कि भाई, ठण्ड बहुत ज्यादा है, भीगे कपडे ही सही, पहने रख। लेकिन वो नहीं माना। जब उसे माचिस नहीं मिली तो पत्थर उठाया और रगडने लगा लेकिन आग तो क्या चिंगारी तक नहीं निकली।

पांच बजे जब बारिश रुकी तो एक गद्दी आया। उसने दूर कहीं बैठे हुए हमें इधर आते देख लिया था। उसने आग जलाई। तब कुछ राहत मिली। कपडे भी सूख गये। घण्टे भर तक आग के पास बैठे रहे। गद्दी ने बताया कि आगे 15 मिनट का रास्ता और है।

हम फिर चल पडे। झील से जरा सा पहले ही कुछ टेण्ट और लगे थे। ये किसी ट्रैवल एजेंसी के माध्यम से यहां आये थे। उनकी अपनी रसोई थी। मैं कुछ खाने के लिये पूछने गया तो उन्होंने वापस मुझसे ही पूछा कि कहां से आये हो। मैंने कहा कि दिल्ली से। बोले कि दिल्ली में कहां से। शाहदरा से। शाहदरा में कहां से। मानसरोवर पार्क से। मैंने पूछा कि आप भी दिल्ली से ही हैं क्या। बोले कि हां। मैं खुश हो गया कि अब तो चाय भी मिलेगी, खाना भी मिलेगा और शायद रहने को टेण्ट भी मिल जाये। बोले कि हम फलानी ट्रैवल एजेंसी के साथ यहां आये हैं। यह हमारी निजी रसोई है, हम आपको कुछ नहीं देंगे। उसने इस स्टाइल में कहा कि जी में आया कि इसका मुंह तोड दूं। साले की इंसानियत मर गई है। चल गप्पू, झील पर चलते हैं। हमारे पास बहुत कुछ है खाने को।

झील पर पहुंचे तो सात बज चुके थे। अंधेरा होने लगा था। बारिश भी दोबारा शुरू हो गई थी। यहां एक मन्दिर है। मन्दिर की बराबर में कुछ कमरे बने हैं, हमने वही शरण ले ली। हमारे अलावा वहां कोई नहीं था। एकमात्र दुकानदार भी दुकान बन्द करके चला गया था। अचानक मुझे कुछ दूर कुछ झौंपडियां दिखीं। चल गप्पू, वहां चलते हैं। उनमें धुआं नहीं उठ रहा है। इसका मतलब है कि उनमें कोई नहीं है। लेकिन कम से कम इन टूटे कमरों के मुकाबले सुरक्षित ही रहेंगे। मन्दिर वाले कमरों में टीन की छत थी, जो कहीं कहीं से फट चुकी थी। पत्थरों की दीवारें भी टूटने लगी थीं।

बडी मुश्किलों को झेलते हुए और बडे अरमान मन में पाले हुए हम उन झौंपडियों तक पहुंचे। पहली झौंपडी की छत टूटी हुई थी और उसमें कीचड ही कीचड था। दूसरी में एक बकरी मरी पडी थी और उसमें से दुर्गंध आ रही थी। तीसरी और चौथी में भी कीचड था। कुल मिलाकर उनमें लेटना तो दूर घुसने तक की जगह नहीं थी। मन मारकर वापस मन्दिर के कमरों तक आये। अब हमें इन्हीं में सारी रात काटनी थी। ठण्डी बर्फीली तेज हवा, बारिश और ओले, फिर 3000 मीटर की ऊंचाई। नमकीन भुजिया और बिस्कुट खाये, पानी पीया और स्लीपिंग बैग निकाल लिये। लेकिन मुश्किलें यही खत्म नहीं हुई थीं। स्लीपिंग बैग में घुसकर चैन बन्द कर लेनी होती है लेकिन एक बैग में चैन ही नहीं थी। वो बैग मैंने लिया। खैर किसी तरह सो गये।


करेरी झील जाने का रास्ता


करेरी झील जाने का रास्ता
















है ना घनघोर जंगल


ये हैं केरल के बन्दे








जब पाण्डव हिमालय पर जा रहे थे तो उनके साथ एक कुत्ता भी जा रहा था। यह वही कुत्त्ता है। सबूत? अरे यार, विज्ञान ने पांव तो क्या पसार लिये आप हर चीज का सबूत मांगते हो? दूंगा सबूत भी।


ये रहा सबूत। सबसे पहले द्रोपदी मरी, फिर सहदेव, फिर नकुल और फिर अर्जुन। अब बचे भीम, युधिष्ठिर और यह कुत्ता जी। युधिष्ठिर और कुत्ता जी हिमालय पर जा रहे हैं। भीम अभी तक सही सलामत है। यह फोटो भीम ने ही खींचा है।






गप्पू को नीचे नदी में उतरकर पानी लाने का बडा शौक था।




यह है केरल की टीम का एक सदस्य।
















दूध की नदियां आज भी बहती हैं।








जम्मू गोठ पर बना लोहे का जर्जर पुल। यहां पर ओले पडने लगे थे।




टेण्ट कालोनी। यहां बीसियों टेण्ट लगे थे। केरल के सभी लोग यही रुक गये थे। हम बारिश में भीगते हुए आगे बढ चले।




यह वो झौंपडी है जहां हमने घोर आपातकाल में शरण पाई थी।


ओलों से सारा वातावरण सफेद हो गया था।










यह फोटो हमने वापस आते समय खींचा। जाते समय इस स्थान पर हमारी वो हालत थी कि हम फोटो खींचना तो दूर, उसके बारे में सोच भी नहीं रहे थे।


सामने एक बडी सी चट्टान के नीचे झौंपडी है। वह नदी के उस तरफ है। हम वही चले गये थे।


वह झौंपडी ऊपर बायें कोने में दिख रही है।


यह रही करेरी झील। फोटो अगले दिन खींचा गया है।


यह है मन्दिर के पास बना कमरा। इसमें हमने तूफानी रात काटी थी।

अगला भाग: करेरी झील की परिक्रमा


करेरी झील यात्रा
1. चल पडे करेरी की ओर
2. भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज
3. करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी
4. करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव
5. करेरी गांव से झील तक
6. करेरी झील के जानलेवा दर्शन
7. करेरी झील की परिक्रमा
8. करेरी झील से वापसी
9. करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
10. करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार


Comments

  1. maan gaye bhai bahut maja aaya

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  2. ख़रीदा वो अच्छा कम और "फ़िल्मी" ज्यादा था. एक तो उसमें टोपी से पानी बहता हुआ गर्दन के रास्ते पीठ से गुजर कर अंत:वस्त्रों को गीला कर रहा था. पानी की हर बूँद के साथ शरीर में कंपकंपी छूट जाती थी. मन ही मन रेनकोट की दुकान वाले को खूब गालियाँ दी... दूसरे वो चढ़ाई चढ़ते वक्त पैरों में उलझ जा रहा था. दो-तीन बार गिरते-गिरते बचा.

    तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई,पैरों में पड़े छाले और पहली बार की इतनी कठिन चढ़ाई ........ऐसा लग रहा था "एवरेस्ट" पे चढ़ रहे हैं . देश-दुनिया और घर-परिवार से एक दम कटे हुए हमारा प्रकृति से एकाकार हो रहा था. बिजली का चमकाना और बादलों की गडगडाहट मेरे जैसे आदमी के हौसले तोड़ देने के लिए काफी था.

    एक आस लिए जब जब दिल्ली के लोगों के टेंट के पास पहुंचे, तो हमारी हालत एक याचक से बेहतर न थी. उन लोगों का अलाव जला कर मस्ती करना और गर्म चाय और काफी पीना हमें ललचा रहा था. नीरज के पूछने पर उनके द्वारा (चाय और खाने के लिए) मना करने पर मन में यही ख्याल आया की क्या इस धरती पर इतनी निकृष्ट कोटि के लोग भी रहते हैं ? जो क्या हुआ वो दिल्ली के थे? बड़े शहरों और मकानों में रहने वाले लोगों के दिल इतने तंग होंगे मैंने सोचा भी न था. नीरज को मैंने कहा," कितने माद ....@#!! लोग हैं यार ये ! " खैर अगले दिन उन लोगों की हालत देख कर मन में बड़ा सुकून आया ...नीरज अपनी अगली पोस्ट में शायद इस का जिक्र करे.

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  3. नीरज के पास "मेट्रो" के जूते और रेनकोट थे वो अच्छी क्वालिटी के थे. मैंने जो रेनकोट ख़रीदा वो अच्छा कम और "फ़िल्मी" ज्यादा था. एक तो उसमें टोपी से पानी बहता हुआ गर्दन के रास्ते पीठ से गुजर कर अंत:वस्त्रों को गीला कर रहा था. पानी की हर बूँद के साथ शरीर में कंपकंपी छूट जाती थी. मन ही मन रेनकोट की दुकान वाले को खूब गालियाँ दी... दूसरे वो चढ़ाई चढ़ते वक्त पैरों में उलझ जा रहा था. दो-तीन बार गिरते-गिरते बचा.

    तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई,पैरों में पड़े छाले और पहली बार की इतनी कठिन चढ़ाई ........ऐसा लग रहा था "एवरेस्ट" पे चढ़ रहे हैं . देश-दुनिया और घर-परिवार से एक दम कटे हुए हमारा प्रकृति से एकाकार हो रहा था. बिजली का चमकाना और बादलों की गडगडाहट मेरे जैसे आदमी के हौसले तोड़ देने के लिए काफी था.

    एक आस लिए जब जब दिल्ली के लोगों के टेंट के पास पहुंचे, तो हमारी हालत एक याचक से बेहतर न थी. उन लोगों का अलाव जला कर मस्ती करना और गर्म चाय और काफी पीना हमें ललचा रहा था. नीरज के पूछने पर उनके द्वारा (चाय और खाने के लिए) मना करने पर मन में यही ख्याल आया की क्या इस धरती पर इतनी निकृष्ट कोटि के लोग भी रहते हैं ? जो क्या हुआ वो दिल्ली के थे? बड़े शहरों और मकानों में रहने वाले लोगों के दिल इतने तंग होंगे मैंने सोचा भी न था. नीरज को मैंने कहा," कितने माद ....@#!! लोग हैं यार ये ! " खैर अगले दिन उन लोगों की हालत देख कर मन में बड़ा सुकून आया ...नीरज अपनी अगली पोस्ट में शायद इस का जिक्र करे.

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  4. आपको पढ़कर हिम्मत मिलती है और घूमने की इच्छा भी होती है
    बढ़िया वर्णन

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  5. धन्य हो। बड़ा जीवट चाहिए ऐसे मौसम में ऐसी दुर्गम यात्रा के लिए।

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  6. यहाँ हम अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा तो नहीं पीटना चाहते,लेकिन उन परिस्थतियों में भी हमारे अन्दर इंसानियत जिन्दा रही. मंदिर के पास जहाँ हमने शरण ली,वहीँ एक छोटी सी दुकान थी. दुकानदार मौसम ख़राब होने और किसी के वहां न होने के कारण बंद करके नीचे चला गया था. आस-पास तीन से चार किलोमीटर के इलाके में वहां हम दोनों के अलावा कोई नहीं था. दुकान मैं दरवाजे पर ताला लगा हुआ था और उस पूरे इलाके मैं दुकान ही एक ऐसी जगह थी जो सही सलामत थी,जिसमें ठण्ड से बचा जा सकता था. पहले तो मैं आग जलाने के चक्कर मैं पड़ा. मंदिर में माचिस भी मिली तो गीली थी. मैंने उसे जेब मैं डाल लिया .कोई सूखी लकड़ी भी वहां नहीं दिखाई दी. दुकान का मुआयना किया तो, दरवाजे के अलावा एक खिड़की जो सामान बेचने के लिए थी, उसके लकड़ी के पाटिये को कील ठोंक कर डोरी से अंदर की तरफ बाँधा गया था. एक बार तो मन मैं आया की अगर डोरी को काट दूं तो पाटिया आराम से खुल जायेगा, फिर उसमें सूखी लकड़ी, माचिस और खाने को मैगी के अलावा भी कुछ मिल सकता है. हालाँकि मेरी अंतरात्मा इसके लिए मना कर रही थी. मैंने नीरज से बात की तो नीरज बोला अभी तो सो जा ,अगर कल भी फंसे रहे तो अपना जीवन बचाने के लिए उसमें से सामान निकालकर उतने पैसे रख देंगे और एक चिट्ठी लिख कर छोड़ देंगे. .......शुक्र है ऐसी नौबत नहीं आई.

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    1. bahut hi sundar . chahe kuch ho jaye ye insaniyat aap me bachi rahe.

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  7. रोंगटे खड़े कर देने वाला यात्रा विवरण

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  8. अति रोमांचक वर्णन है मुसाफिर जी. पढते हुए मन सिहर उठता हैलग रहा है जैसे कि कोई कहानी पढ रहे हैं

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  9. मैंने नीरज से बात की तो नीरज बोला अभी तो सो जा ,अगर कल भी फंसे रहे तो अपना जीवन बचाने के लिए उसमें से सामान निकालकर उतने पैसे रख देंगे और एक चिट्ठी लिख कर छोड़ देंगे. .......

    "That's Why we called Neeraj A Great Ghummakkad....." Proud of you...

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  10. gappu ji man gaye aapki himmat ko mai aapse puchna chahta hun ki aap pahle bhi ghumte rahe ho kaya .neeraj bhai to hamesha ghumte rahte han. aap bahut himmatwale ho.birle hi hote hai ase log.

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  11. नीरज कभीकभी तुमसे जलन होती है.मस्त घुमकड्डी है.दिल तो हमारा भी करता है मगर कुछ तो मज़बूरिया< रही होगी..................हा हअ हा हा हा.बहुत दिनों से तुमसे बात नही हुई है.तुम्हारा नम्बर मिस हो गया है.हो सके तो अपना नम्बर देना.मेरा नम्बर वही है 09425203182.

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  12. नयनाभिराम चित्र, रोचक वर्णन। हिन्दी बोलने वाले तो केरल क्या अमेरिका में भी खूब मिलते हैं। "अतिथि देवो भवः" के देश में दिल्ली वालों का व्यवहार वाकई गिरा हुआ था। मगर ऐसी मानसिकता की कमी नहीं है।

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  13. @सुरेश जी,मैं पहली बार ही निकला था घूमने .बस हिम्मत और घूमने कि प्रबल इच्छा के दम से ही ये संभव हो सका है. मुझे पता नहीं था कि मुझ जैसे सनकी और भी हैं दुनिया में. एक तो नीरज मिल गया और दूसरा जाट देवता.मैं भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक मोटर साईकिल से जाना चाहता था. ब्लोगिंग को बहुत-बहुत धन्यवाद! एक घुमक्कड़ क्लब के बारे मन क्या विचार है?अध्यक्ष नीरज ........

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  14. एक घुमक्कड़ क्लब के बारे मन क्या विचार है?अध्यक्ष नीरज...
    Agreed with Gappu JI....

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    Replies
    1. I am also agree, whenever you make a plan inform me

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  15. एक घुमक्कड़ क्लब के बारे मन क्या विचार है?अध्यक्ष नीरज...
    Agreed with Gappu JI....

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  16. बहुत बढ़िया...वैसे घूमने के लिए हिम्मत होनी चाहिए.....
    हमने भी सैर कर ली....

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  17. गप्पू भाई, चल श्रीखण्ड महादेव

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  18. सिर मुंडाते ही ओळे ओळे ओळे।:) अबकी बार हेलमेट लेके जाईयों। हा हा हा

    इतने खराब मौसम में अनजानी जगह पर यात्रा करना दुस्साहस तो है। जब बादल नजदीक हों और बिजली चमक रही हो। कभी झटका भी दे सकती है।

    इसलिए सुरक्षात्मक उपाय ही करना जरुरी है।
    पहाड़ बड़े बेरहम होते हैं, किसी पर दया नहीं करते।

    और उन सुसरों की तो बजा के आना था,जो दिल्ली को बदनाम कर रहे थे।

    राम राम

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  19. @जाट देवता! नहीं चल सकता छुट्टी नहीं है.

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  20. इस जाट की कैसे किन शब्दों में तारीफ़ करूँ...ऐसा साहसी छोरा मैंने तो अपनी ज़िन्दगी में अभी तक न देखा...जित्ते बढ़िया दिल का है बित्ती ही बढ़िया फोटू खींचता है और उस से भी बढ़िया भाषा में चुटकियाँ लेता हुआ विस्तार से यात्रा के बारे में बताता है...लेखन उच्च कोटि का है और जीवट कमाल का...धन्य है रे भाई तू...तेरे साथ गप्पू जी भी धन्य हो गए...

    नीरज

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  21. सही कहा ललित जी ने सर मुंडाते ओले पड़े ...तुम को इतनी खतरनाक जगहों पर नही जाना चाहिए नीरज ..कभी अपनी माँ को दिखाए ये फ़ोटो ....बीबी होती तो बैंड बजाती ...??

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  22. bahut mazaa aaya padh ke ...kaash main bhi jaa paata ,par itna chalne ki himmat nahi hai ab ....
    jai ghumakkad


    ajit

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  23. Gazab bhai...padh aur dekh kar hi dhanya bhye..

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  24. नीरज भाई गप्पू जी की ब्लॉग का एड्रेस दीजिये उन्हें पड़ने की बड़ी दिली इच्छा हो रही है करेरी झील की यात्रा आज पड़ के लगा की यार ये बन्दा तो तुमसे भी ज्यादा जी दार निकला जो पहली ही यात्रा मैं इतना ऊपर तक गया
    गप्पू जी के ब्लॉग एड्रेस के इंतज़ार मैं

    कुलदीप शर्मा

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब