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Showing posts from November, 2011

सहस्त्रधारा और शिव मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । मसूरी यात्रा पर जाने से पहले बहुत दूर-दूर जाने का प्रोग्राम बना लिया था। असल में चार दिन की छुट्टी मिल गई थी। और अपना एक साथी बहादुर सिंह मीणा बहुत दिन से सिर हो रहा था कि साहब, इस बार जब भी जाओगे तो मुझे भी ले चलना। उसे हिमालय का कोई अनुभव नहीं है, तो ऐसे महानुभावों को मैं पहली यात्रा हिमालय की ही कराना पसन्द करता हूं। मैंने उससे बताया कि 8 से 11 नवम्बर की छुट्टी ले ले, हिमालय पर चलेंगे। उसे इतना भी आइडिया नहीं था कि हिमालय है किस जगह पर। हां, बस है कहीं भारत में ही। उसने यह भी सुन रखा था कि हिमालय पर बरफ होती है और नवम्बर का महीना वैसे भी ठण्डा होने लगता है तो वहां और भी ज्यादा ठण्ड होगी। इस एक बार से वो भयभीत था। उधर मेरे दिमाग में कई जगहें आ रही थीं। खासकर चार जगहें- मनाली, सांगला घाटी, हर की दून और डोडीताल। आखिर में सारा हिसाब किताब लगाया तो मनाली और हर की दून ने बाजी मारी। मुझसे अक्सर मनाली के बारे में पूछा जाता है और मैं अभी तक वहां गया नहीं हूं तो उसके बारे में बताने में बडी दिक्कत होती है। और रही हर की दून क

शाकुम्भरी देवी शक्तिपीठ

शाकुम्भरी देवी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। रोजाना हजारों श्रद्धालु यहां देवी के दर्शन के लिये पहुंचते हैं। शाकुम्भरी को दुर्गा का रूप माना जाता है। यह हमारी मसूरी यात्रा का पहला पडाव था। दिल्ली से चलकर सीधे रुडकी, छुटमलपुर, कलसिया, बेहट और शाकुम्भरी। देवी के मन्दिर से करीब एक किलोमीटर पहले बाबा भूरा देव जी का मन्दिर है। देवी के दर्शन से पहले बाबा के दर्शन करने होते हैं। कुछ लोग इसे भैरों देव जी भी कहते हैं। मान्यता है कि यह देवी का रक्षक है। भूरा देव जी के बाद एक किलोमीटर का रास्ता नदी के बीच से होकर जाता है। हालांकि नवम्बर के शुष्क महीने में नदी एक महीन सी धार के साथ बह रही थी लेकिन बरसात में नदी का वेग काफी बढ जाता होगा। शाकुम्भरी मन्दिर भी नदी के अन्दर ही बना है। दोनों तरफ छोटे छोटे पहाड हैं। यह एक किलोमीटर नदी के पत्थरों को सेट करके गाडियों के चलने लायक रास्ता बना हुआ है। मानसून में जब नदी पूरे उफान पर बहती होगी तो श्रद्धालुओं को पैदल ही नदी के अन्दर से निकलकर जाना पडता होगा। लेकिन ये शिवालिक की पहाडियां हैं। जब तक बारिश होती रहेगी, तब तक नदी भी

पिण्डारी यात्रा का कुल खर्चा- 2624 रुपये, 8 दिन

1 अक्टूबर से 8 अक्टूबर तक हम पिण्डारी ग्लेशियर की यात्रा पर थे। कुल मिलाकर 8 दिन बनते हैं और खर्च आया 2624 रुपये। शुरू से लेकर आखिर तक हमने क्या-क्या खर्चा किया, इसे पूरे विस्तार से आगे बताया गया है। यह खर्च बाद में जाने वाले घुमक्कडों के बहुत काम आयेगा। 1 अक्टूबर 2011 दिल्ली से जाट महाराज के साथ अतुल भी था। हमारा तीसरा साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमें हल्द्वानी में मिलेगा।

पिण्डारी ग्लेशियर- सम्पूर्ण यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । पिण्डारी ग्लेशियर उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में बागेश्वर जिले में स्थित है। यहां जाने के लिये सबसे पहले हल्द्वानी पहुंचना होता है। हल्द्वानी से अल्मोडा (96 किलोमीटर), अल्मोडा से बागेश्वर (80 किलोमीटर) और बागेश्वर से सौंग (40 किलोमीटर) पहुंचना होता है। सौंग से पैदल यात्रा शुरू होती है जो निम्न प्रकार है: 1. सौंग से लोहारखेत (3 किलोमीटर): लोहारखेत तक सडक भी बनी है। एक पैदल रास्ता सौंग से लोहारखेत जाता है। जहां सौंग समुद्र तल से करीब 1400 मीटर पर है वही लोहारखेत लगभग 1848 मीटर पर है। 2. लोहारखेत से धाकुडी (8 किलोमीटर): यह सम्पूर्ण यात्रा का कठिनतम भाग है। शुरूआती 7 किलोमीटर सीधी चढाई भरे हैं। 7 किलोमीटर के बाद धाकुडी टॉप आता है जिसकी ऊंचाई 2900 मीटर है। इसके बाद नीचे उतरकर 2680 मीटर की ऊंचाई पर धाकुडी है।

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- छठा दिन (खाती-सूपी-बागेश्वर-अल्मोडा)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 6 अक्टूबर 2011, आज हमें खाती से वापस चल देना था। जो कार्यक्रम दिल्ली से चलते समय बनाया था, हम ठीक उसी के अनुसार चल रहे थे। आज हमें खाती में ही होना चाहिये था और हम खाती में थे। यहां से वापस जाने के लिये परम्परागत रास्ता तो धाकुडी, लोहारखेत से होकर जाता है। एक रास्ता पिण्डर नदी के साथ साथ भी जाता है। नदी के साथ साथ चलते जाओ, कम से कम सौ किलोमीटर चलने के बाद हम गढवाल की सीमा पर बसे ग्वालदम कस्बे में पहुंच जायेंगे। एक तीसरा रास्ता भी है जो सूपी होकर जाता है। सूपी से सौंग जाना पडेगा, जहां से बागेश्वर की गाडियां मिल जाती हैं।

कफनी ग्लेशियर यात्रा

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 5 अक्टूबर 2011 का दिन था वो। मैं और अतुल द्वाली में थे जबकि हमारे एक और साथी नीरज सिंह यानी हल्दीराम हमसे बारह किलोमीटर दूर पिण्डारी ग्लेशियर के पास थे। समुद्र तल से 3700 मीटर की ऊंचाई पर बिना स्लीपिंग बैग के उन्होंने पता नहीं कैसे रात काटी होगी। दिल्ली से चलते समय हमने जो कार्यक्रम बनाया था, उसके अनुसार आज हमें कफनी ग्लेशियर देखना था जबकि हकीकत यह है कि पिछले तीन दिनों से हम लगातार पैदल चल रहे थे, वापस जाने के लिये एक दिन पूरा पैदल और चलना पडेगा तो अपनी हिम्मत कुछ खत्म सी होने लगी थी। जाट महाराज और अतुल महाराज दोनों एक से ही थे। इस हफ्ते भर की यात्रा में एक खास बात यह रही कि मैं हमेशा सबसे पहले उठा तो आज भी जब उठा तो सब सोये पडे थे। मेरे बाद ‘होटल’ वाला उठा, फिर अतुल। रात सोते समय तय हुआ था कि कफनी कैंसिल कर देते हैं और वापस चलते हैं। लेकिन उठते ही घुमक्कडी जिन्दाबाद हो गई। घोषणा हुई कि कफनी चलेंगे। हालांकि अतुल को इस घोषणा से कुछ निराशा भी हुई। खाने के लिये बिस्कुट-नमकीन के कई पैकेट भी साथ ले लिये। अगर कफनी ना जाते

पिण्डारी ग्लेशियर यात्रा- चौथा दिन (द्वाली-पिण्डारी-द्वाली)

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 4 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब छह बजे मेरी आंख खुल गई। देखा कि ‘होटल’ मालिक समेत सब सोये पडे हैं। होटल में अतुल और हल्दीराम भी थे। तय कार्यक्रम के अनुसार आज हमें 29 किलोमीटर चलना था- द्वाली से पिण्डारी 12 किलोमीटर, पिण्डारी से द्वाली वापस 12 किलोमीटर और द्वाली से खटिया 5 किलोमीटर। खटिया कफनी ग्लेशियर के रास्ते में पडता है। दिन भर में 29 किलोमीटर चलना आसान तो नहीं है लेकिन सोचा गया कि हम इतना चल सकते हैं। मुझे अपनी स्पीड पर तो भरोसा है, अतुल चलने में मेरा भी गुरू साबित हो रहा था, और रही बात हल्दीराम की तो उसके साथ एक पॉर्टर प्रताप सिंह था जिसकी वजह से हल्दीराम बिना किसी बोझ के चल रहा था और स्पीड भी ठीकठाक थी। कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि हम आज खटिया नहीं जा पायेंगे।