इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 3 अक्टूबर 2011 की सुबह करीब सात बजे कुछ हलचल सी सुनकर अपनी आंख खुली। याद आया कि मैं धाकुडी में पडा हूं। अरे हां, अतुल और हल्दीराम भी तो यही थे, वे कहां चले गये। इस यात्रा पर चलने से पहले मैंने दिल्ली से ही एक स्लीपिंग बैग खरीद लिया था तो मैं बैग में ही घुसा पडा था। वैसे तो पिण्डारी यात्रा में स्लीपिंग बैग की कोई जरुरत नहीं होती लेकिन कभी-कभी कहीं-कहीं कम्बल लेने के खर्चे से बच जाते हैं। जो लोग स्लीपिंग बैग के बारे में नहीं जानते उनके लिये बता दूं कि यह एक बहुत नरम, मजबूत, गरम बोरा होता है जिसमें एक अच्छा खासा इंसान घुसकर सो सकता है। इसमें घुसकर चेन बन्द करनी होती है और फिर देखो, ठण्ड कैसे दूर भागती है। मेरा बैग माइनस पांच डिग्री तक की ठण्ड को झेलने वाला था। अजीब बात ये हुई कि रात जब मैं सोया था तो अच्छी तरह अन्दर घुसकर सोया था लेकिन अब बैग से बाहर पडा हूं और मैंने बैग को रजाई की तरह ओढ रखा है।
नीरज मुसाफिर का यात्रा ब्लॉग