Skip to main content

भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
आज का दिन मेरे घुमक्कडी इतिहास के मील का पत्थर है। असोम के बारे में जो भी भ्रान्तियां थीं, सब खत्म हो गईं। यह एक दिन इतना सिखा गया कि बता नहीं सकता। जी खुश है आज। आज असोम ने दिल जीत लिया। ऐसा तो अपने भी नहीं करते। धीरे धीरे बताता हूं कि आज क्या-क्या हुआ।
11 अगस्त की सुबह आंख खुली सिमालुगुडी जंक्शन पर। ट्रेन एक घण्टे लेट चल रही थी। हो जा जितना लेट होना है। तू जितनी भी लेट होगी, मैं उतना ही खुश होऊंगा। पौने छह घण्टे का मार्जिन है लीडो में और वहां करने धरने को कुछ नहीं। स्टेशन पर बैठकर मक्खियां ही गिननी पडेंगी। गिननी इसलिये क्योंकि मक्खियां मारनी बसकी बात नहीं है। चार घण्टे लेट हो जा; चल छोड, पांच घण्टे लेट हो जा मेरी तरफ से, मैं परेशान होने वालों में नहीं हूं।
लाकुवा, भोजो और सापेखाती के बाद मैं फिर सो गया। जब गाडी तिनसुकिया पहुंची, तब पता तो चल गया था लेकिन मैं उठा नहीं। मार्घेरिटा के बाद जाकर उठा, जब कुछ ही देर में लीडो पहुंचने वाले थे।
लीडो- भारत का सबसे पूर्वी रेलवे स्टेशन। इसकी स्थिति 27°17’28.44” N और 95°44’17.77” E है। बडी इच्छा थी कि इस स्टेशन को देखूंगा। अजब का एहसास हो रहा था मुझे लीडो पहुंचकर। पूरे भारत में इससे पूर्व में ट्रेन नहीं जाती। वैसे तो इससे करीब चार पांच किलोमीटर आगे लेखापानी तक यानी अरुणाचल सीमा तक रेल की लाइन भी बिछी है, लेखापानी नाम का स्टेशन भी है लेकिन वो तब की बात है जब यहां मीटर गेज हुआ करती थी। मीटर गेज को खत्म हुए अर्सा गुजर गया, तो लेखापानी की अहमियत भी खत्म हो गई। अब नाम का स्टेशन बचा है।
तेज धूप पड रही थी, मेरा मन नहीं हुआ लेखापानी तक जाने का। जाना होता तो शायद रेल लाइन के साथ साथ जाता। या फिर सडक के रास्ते भी चला जाता। सडक भी रेल के साथ साथ ही जाती है।
इण्टरसिटी में पैण्ट्री तो थी नहीं कि मैं खाना खा सकता। भूख लगी थी। लीडो स्टेशन पर समोसे मिल गये। चाय समोसे खाये, तब कुछ तसल्ली मिली। अभी साढे दस बजे हैं, सवा तीन बजे यही इण्टरसिटी वापस जायेगी। उसके बाद चार बजे डिब्रुगढ के लिये पैसेंजर मिलेगी। मुझे डिब्रुगढ जाना है, इसलिये मेरे लिये पैसेंजर ट्रेन ही ठीक है।
डिब्रुगढ में दो स्टेशन हैं जैसे दिल्ली में नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली। पुराने डिब्रुगढ का पूरा नाम डिब्रुगढ टाउन (DBRT) है जबकि नये का नाम मात्र डिब्रुगढ (DBRG) ही है। दोनों के बीच फासला करीब सात-आठ किलोमीटर का है। पैसेंजर ट्रेन पुराने डिब्रुगढ जाती है और कन्याकुमारी जाने वाली विवेक एक्सप्रेस नये डिब्रुगढ से चलती है। मैं चाहता था कि कुछ ऐसा हो जाये कि मुझे पुराने डिब्रुगढ ना जाना पडे, ट्रेन पुराने डिब्रुगढ ही पहुंचा दे। नेट अपनी जेब में होता ही है, तुरन्त ही पता चल गया कि एक स्पेशल ट्रेन है जो कामाख्या से नये डिब्रुगढ के बीच सप्ताह में दो दिन चलती है। उसका तिनसुकिया पहुंचने का टाइम शाम छह बजे का है और अभी आधा घण्टा लेट चल रही है। उधर लीडो से गुवाहाटी जाने वाली इण्टरसिटी एक्सप्रेस शाम पांच बजे तिनसुकिया पहुंचती है, उसके पीछे पीछे चलने वाली पैसेंजर भी पौने छह के आसपास वहां जाती है। मेरा इरादा इण्टरसिटी से तिनसुकिया और उसके बाद स्पेशल ट्रेन से डिब्रुगढ जाने का था।
मैंने टिकट क्लर्क से नये डिब्रुगढ का एक्सप्रेस का टिकट मांगा, लेकिन उसने पुराने का पैसेंजर का टिकट दे दिया। मैंने उसे समझाया कि मैं इण्टरसिटी से तिनसुकिया तक जाऊंगा, फिर वहां से मुझे स्पेशल ट्रेन मिल जायेगी। बोला कि किस चक्कर में पड रहे हो? सीधे पैसेंजर से क्यों नहीं चले जाते। मैंने बताया कि नये डिब्रुगढ पर जाना है। बोला कि तिनसुकिया से कोई ट्रेन ही नहीं है, तुम्हें वहां से फिर यही पैसेंजर ही पकडनी पडेगी। मैंने समझाया कि एक स्पेशल ट्रेन है, आप चिन्ता छोडो, पैसेंजर का टिकट कैंसिल करो, दस रुपये चार्ज लगेगा और एक्सप्रेस का दे दो। हालांकि वो मुझे एक्सप्रेस का टिकट दे सकता था लेकिन पहले तो वो सोच की मुद्रा में बैठा रहा, फिर हंसा। बाद में उसने कहा कि तुम खामखा अपने पैसे बर्बाद करने पर तुले हो। कोई गाडी नहीं है, तुम पैसेंजर से ही जाओ। मैंने सोचा कि यह अब टिकट नहीं देगा और पीछे हट गया। पैसेंजर से ही गया। बाकी भारत के चिडचिडे क्लर्कों के मुकाबले वो शान्त क्लर्क मन पर छाप छोड गया। इन लोगों के चेहरे पर कभी भी मुस्कान नहीं आ सकती लेकिन वो हंसा भी और अपना काम छोडकर मुझे समझाने लगा। उसे स्पेशल गाडी की जानकारी नहीं थी और साथ ही वो मेरे पैसे भी बचाना चाह रहा था। उसे पता था कि अगर मैं तिनसुकिया तक इण्टरसिटी से चला जाऊंगा तो भी आगे जाने के लिये यही पैसेंजर पकडनी पडेगी।
न्यू तिनसुकिया पहुंचकर मैंने सबसे पहले उस स्पेशल का स्टेटस पता किया तो वो डेढ घण्टे लेट निकली। फिर मैंने गाडी नहीं बदली और पैसेंजर से ही पुराने डिब्रुगढ गया। यहां से नये स्टेशन जाने के लिये ऑटो मिलते हैं। एक ऑटो वाले से पूछा तो उसने तुरन्त बताया कि तीस रुपये। साथ ही यह भी पूछा कि कौन सी ट्रेन पकडनी है। मैंने बताया कि विवेक एक्सप्रेस तो बोला कि बहुत टाइम है। जब तीन सवारियां और आ जायेंगी तो मैं चलूंगा।
एक घण्टा हो गया लेकिन उसकी तीन सवारियां नहीं आईं। मैंने उससे कहा कि भाई, अगर तेरी सवारियां नहीं आयेंगी तो क्या तू यहीं खडा रहेगा? बोला कि आपकी ट्रेन नहीं निकलने देंगे। हमारा उसूल है कि चाहे एक सवारी ही क्यों ना हो, अगर ट्रेन का टाइम हो रहा है तो हम तीस रुपये में ही उसे लेकर जाते हैं। मैंने कहा कि मुझे जाकर सीधे ट्रेन में नहीं बैठना है, बल्कि नहाना भी है, धोना भी है, खाना भी है, मोबाइल चार्ज भी करना है। अभी तक चार सवारियां हो चुकी थीं और उसे दो सवारियों की दरकार और थी। उसने और ऑटो यूनियन के बाकी सदस्यों ने सवारियों को एक सुझाव दिया कि चालीस चालीस रुपये दे देना, अभी चल पडेंगे। नहीं तो इस ऑटो वाले को नुकसान हो जायेगा। इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। सभी ने चालीस चालीस रुपये दिये और साढे आठ बजे तक नये डिब्रुगढ पहुंच गये।
यहां जाकर सबसे पहले नहाने का काम निपटाया। फिर सबकुछ चार्जिंग पर लगा दिया। रात ग्यारह दस पर दिल्ली जाने वाली ब्रह्मपुत्र मेल चली गई और पौने बारह बजे अपनी विवेक एक्सप्रेस।
पिछले दो दिनों से मैं असोम में हूं। कल का दिन भी इसी राज्य में गुजरेगा। इण्टरसिटी कोई लम्बी चौडी ट्रेन नहीं होती, लोकल ट्रेन ही होती है। सुदूर पूरब में लीडो स्टेशन पर भी करीब पांच घण्टे गुजारे हैं। कभी भी मुझे यह नहीं लगा कि मैं यहां परदेशी हूं जैसा कि अक्सर घुमक्कडों के साथ हर जगह पर होता है। यहां आने से पहले मैं सोच रहा था कि कोई हिन्दी बोलने वाला नहीं मिलेगा। मिलेगा भी तो हद से हद गुवाहाटी तक, सुदूर में तो कोई नहीं। लेकिन यह मेरा भ्रम था। हर आदमी- छोटे बच्चों से लेकर बडे बूढों तक, पढे लिखों से लेकर अनपढों तक; सब खूब हिन्दी बोलते हैं। यह बात मेरे लिये हैरानी की बात थी। हमारे पहाड पर खासकर उत्तराखण्ड के पहाडों में बडी बूढी हिन्दी नहीं बोल सकती, ना समझ सकतीं। यहां मैं हिन्दी की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर रहा था, तो यह सब अप्रत्याशित था। अपनापन सा मिल जाता है जहां सभी लोग हमारी भाषा में बात सकते हों।
यहां हिन्दी के लिये जिम्मेदार हिन्दीभाषी क्षेत्रों से आये हुए लोग ही हैं- कुछ सुरक्षाबल और बाकी मजदूर, काम धन्धा करने वाले। उनकी देखा-देखी लोकल भी हिन्दी में काफी मंज गये हैं। हर मोबाइल में हिन्दी गाने ही बजते हैं। ट्रेनों में छोटे छोटे सामान बेचने वाले जो निश्चित तौर पर स्थानीय होते हैं, हिन्दी बोलते हैं। अगर उनसे कोई असोमी टकरा जाये तो असोमी पर आ जाते हैं।
असोम के बारे मे मेरा मात्र यही भ्रम था कि वहां मुझे सुनने वाला कोई नहीं होगा, लेकिन यहां आकर पता चला है कि हर आदमी मुझे सुन सकता है और सुन भी रहा है। मेरी यात्रा पश्चिमी असोम से पूर्वी असोम तक थी, दक्षिणी असोम अभी भी रह गया। लेकिन उम्मीद है कि वहां भी बिल्कुल ऐसे ही हालात होंगे। और जब असोम में ऐसा है तो बाकी ‘बहनें’ अलग क्यों रह सकती हैं?
अरुणाचल के बारे में तो मैंने कई बार पढ रखा है कि वहां भी खूब हिन्दी बोली जाती है। घुमक्कडों के लिये खुशी की बात है यह।
बांस ही जीवन का आलम्ब है यहां। दैनिक जरुरतों की हर चीज बांस की बनी होती है। घर भी बांस के होते हैं। लेकिन उन्हें जमीन से थोडा ऊपर उठाकर बनाते हैं। इसका कारण बरसात में समझ में आता है जब चारों तरफ पानी भर जाता है। इससे घरों में पानी नहीं भरता। घरों के फर्श से दीवारें और छत तक सब बांस से बनती हैं। दीवारों को बांस से बनाकर मिट्टी से लीप देते हैं।
अरे, पुल तक बांस के बने होते हैं जिनपर गाडियां भी आराम से नदी पार कर जाती हैं।
और मीठा बांस भी होता है यहां। मीठा बांस मतलब गन्ना। लेकिन यह जंगली प्रारूप में ही ज्यादा दिखाई दिया। बांस के झुरमुट के बीच बीच में यदा-कदा। हालांकि लामडिंग के पास गन्ने के दो-चार कायदे के खेत भी दिखे।


लाकुवा स्टेशन

असोम में धान के खेत

धान के खेत

भोजो स्टेशन

लीडो स्टेशन- भारत का सबसे पूर्वी रेलवे स्टेशन

लीडो स्टेशन

लीडो स्टेशन पर खडी डिब्रुगढ पैसेंजर

लीडो स्टेशन का आखिरी सिरा

लीडो-डिब्रुगढ पैसेंजर ट्रेन यात्रा

एक नदी का किनारा

मानसून में छोटी छोटी नदियां भी उफान पर होती हैं।

लीडो-तिनसुकिया के बीच में है पावै स्टेशन

डिगबोई तेल शोधन कारखाने के लिये प्रसिद्ध है।

माकुम जंक्शन- यहां से एक लाइन लीडो जाती है और एक जाती है डंगारी।

तिनसुकिया स्टेशन

तिनसुकिया मतलब पुराना तिनसुकिया स्टेशन

और यह है न्यू तिनसुकिया

डिब्रुगढ का नया स्टेशन रात के समय

डिब्रुगढ

और यह है अपना विवेक एक्सप्रेस में रखा तामझाम

अगला भाग: भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम और नागालैण्ड


ट्रेन से भारत परिक्रमा यात्रा
1. भारत परिक्रमा- पहला दिन
2. भारत परिक्रमा- दूसरा दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. भारत परिक्रमा- तीसरा दिन- पश्चिमी बंगाल और असोम
4. भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन
5. भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम और नागालैण्ड
6. भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
7. भारत परिक्रमा- सातवां दिन- आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु
8. भारत परिक्रमा- आठवां दिन- कन्याकुमारी
9. भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
10. भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क
11. भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात
12. भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान
13. भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
14. भारत परिक्रमा- आखिरी दिन

Comments

  1. jat bhi assam ke bare me nai nai jankari dene ke lie dhanyawad photo bee achhe hain

    ReplyDelete
  2. सफर कितना मुश्किल, जहां नजर पड़ती है, वहीं रुक जाने को जी चाहता है.

    ReplyDelete
  3. रेलवे के चारों छोर छू आये हैं आप..

    ReplyDelete
  4. बढ़िया यात्रा संस्मरण , आपकी लीडो यात्रा के बारे में पढ़ने के लिए उत्सुक था हालाँकि मुझे यह उम्मीद थी कि शायद आप लिडो की मशहूर स्टिल्वेल रोड के चित्र अपनी पोस्ट में देंगे . खैर कभी यहाँ दुबारा आना हो तो लीडो रोड ज़रूर हो आइए यह सड़क दूसरे विश्वयुद्ध में अँग्रेज़ों ने बर्मा के रास्ते चीन को रसद पंहुचाने के लिए बनवाई थी.

    ReplyDelete
  5. बधाई भारत की सबसे पूर्वी स्टेशन छूने के लिये... दार्जिलिंग भी जाना चाहिये था, टाय ट्रेन मे तो और मजा आता

    ReplyDelete
  6. Mujhe bohut achcha laga ki apko asom bhrman ka achcha sukhad anubhav sobke sath kiuy ki mai ek asom basi ho asom basi ke proti apkd pyar aur apnapan dekh kar mera sina garv se bhar gaya mai makum tinsukia me rehta ho apko mere taraf se bahut bahut dhanyavad apka jibon bhagawan khusi se bhar de

    ReplyDelete
  7. आप के सब ब्लॉग को पुस्तक का रूप दे

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब