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भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क

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17 अगस्त 2012
आज का दिन बहुत खराब रहा। बल्कि खराबी रात से ही आनी शुरू हो गई। पता नहीं क्या हुआ कि दाहिने हाथ के कन्धे में बडा तेज दर्द होने लगा। मंगलौर से चला था तो कम था लेकिन मडगांव से निकला तो बढ गया। लेटने की ज्यादातर अवस्थाओं में यह असहनीय हो जाता। मात्र एक अवस्था में दर्द नहीं होता था- बिल्कुल सीधे लेटकर दाहिना हाथ पेट पर रखकर सोने पर।
लेकिन मेरे लिये पेट पर हाथ रखकर सोने से अच्छा है कि ना ही सोऊं। क्योंकि पेट पर हाथ रखकर सोने से मुझे बडे भयंकर डरावने सपने आते हैं। मुझे याद है, होश संभालने से अब तक, जब भी मुझे डरावने सपने आते हैं, इसका मतलब पेट पर हाथ ही होता है। मैं भूलकर भी इस अवस्था में नहीं सोता हूं, लेकिन कभी कभी नींद में ऐसा हो जाता है। पसीने से लथपथ हो जाता हूं और आंख खुल जाती है। आज भी ऐसा ही हो रहा था। नींद आती और गडबड शुरू, पसीना और नींद गायब। पेट से हाथ हटाते ही असहनीय दर्द। फिर से वही हाथ रखना पडता। और यह चक्र मुम्बई आने तक चलता रहा। इस दौरान कई बार कभी मुझपर तो कभी घर-परिवार पर भयंकर आपदा टूटती दिखाई पडीं। हालांकि मैं इन बातों पर विश्वास नहीं करता लेकिन कुछ तो मामला है कि पेट या छाती पर हाथ रखकर सोने से डरावने सपने आते हैं।
पूरी रात अच्छी नींद नहीं आई। सुबह एक बार तो सोचा कि ठाणे ही उतर जाता हूं, वहां से बोरीवली चला जाता हूं। वहीं जाकर या तो सोऊंगा, या फिर संजय गांधी नेशनल पार्क देखने चला जाऊंगा। लेकिन मोबाइल की बैटरी खत्म थी, रिजर्व वाली भी। उसे बोरीवली में चार्ज करने के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था क्योंकि बोरीवली मुख्य रूप से एक लोकल स्टेशन है। इससे अच्छा है कि लोकमान्य तिलक ही चलते हैं, नहाना-धोना भी हो जायेगा, ताल-तुक्का लग गया तो मोबाइल भी चार्ज हो जायेगा।
लोकमान्य तिलक ने निराश नहीं किया। वेटिंग रूम में घुसते ही मोबाइल का इंतजाम मिल गया। जब एक बैटरी चार्ज हो गई घण्टे भर में तो दूसरी चार्जिंग पर लगा दी। नहाने गया तो पता चला कि बुखार हो गया है। अभी तक मुझे महसूस नहीं हो रहा था कि बुखार भी है। लेकिन जब पानी सिर पर डालते हैं तो शरीर में जो झुरझुरी होती है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बुखार है। बुखार भी है, इसकी जानकारी मिलते ही मैंने दो बाल्टी पानी और डाला अपने ऊपर। मेरा बुखार भगाने का तरीका है कि अगर सर्दियों का बुखार है तो दिन-रात रजाई में घुसे पडे रहो और अगर गर्मियों का है तो नहाते रहो। मैं अक्सर बुखार में दवाई-गोली नहीं लेता हूं।
साढे नौ बजे लोकमान्य से निकल लिया मैं। अब जाना था सीधे बोरीवली। दो फायदे थे- एक तो एक बजे अहमदाबाद जाने वाली गरीब रथ वहीं से मिलनी थी, दूसरा टाइम काटने के लिये पास में ही नेशनल पार्क है। शुक्रवार का दिन था और समय भी ऐसा कि मुम्बई की लोकल में बाहरी आदमी यात्रा करने से पहले सोचेगा जरूर। लोकमान्य के नजदीक का लोकल स्टेशन तिलक नगर है जो मध्य रेलवे की हार्बर लाइन पर पडता है। मुझे लोकल के नेटवर्क के बारे में ठीक-ठाक जानकारी है, सीधा बोरीवली का टिकट लिया। तिलक नगर से पहले पकडी सीएसटी वाली लोकल और वडाला रोड पर उतर गया। वहां से पहुंचा अन्धेरी और अन्धेरी से बोरीवली। अन्धेरी पश्चिमी लाइन पर पडता है। एक लाइन यह भी है जो लोकल की मध्य और पश्चिमी दोनों लाइनों को मिलाती है। ट्रेन सीएसटी से आती है और अन्धेरी जाती है। या फिर दूसरा तरीका है कि तिलक नगर से पहले कुर्ला जाओ, फिर कुर्ला से दादर और फिर दादर से बोरीवली।
बोरीवली में मुझे अचानक वडा पाव दिखाई पड गये। अरे, मैं तो कितने दिनों से इनका इंतजार कर रहा था। दो वडा पाव और कोल्ड ड्रिंक का मस्त कम्बिनेशन बना। लेकिन हल्के बुखार की वजह से एक वडा पाव खाने के बाद दूसरा खाने का मन नहीं हुआ, हालांकि खाया जरूर।
किसी से पूछने की जरुरत ही नहीं पडी कि नेशनल पार्क कहां है। बोरीवली स्टेशन से पूर्वी साइड से बाहर निकलो और दस बीस कदम उत्तर में चलकर एक तिराहे से पूर्व में मुड जाओ। आधा किलोमीटर सीधे चलो। सामने नेशनल हाइवे का फ्लाईओवर दिखेगा। फ्लाईओवर के दूसरी तरफ संजय गांधी नेशनल पार्क का एण्ट्री गेट है।
पार्क में प्रवेश के लिये तीस रुपये फीस लगती है। यह पार्क भी ज्यादातर नेशनल पार्कों की तरह दो भागों में बंटा है- पब्लिक एरिया और कोर एरिया। कोर एरिये में शेर और तेंदुए मिलते हैं, इसलिये वहां जाने के लिये सफारी की सहायता से ही जा सकते हैं। बाकी पूरे पार्क में कहीं भी खुले घूमो।
बोरीवली से पांच छह किलोमीटर अन्दर जाकर कन्हेरी गुफाएं भी हैं। उनका महत्व भी एलीफेण्टा और अजन्ता गुफाओं जितना ही है, प्राचीन हैं। मेरे पास यहां घूमने के लिये दो घण्टे थे। इन दो घण्टों में मैं गुफाएं देखकर नहीं लौट सकता था, इसलिये अपना लक्ष्य बनाया बर्ड वाचिंग का। हालांकि पार्क के मेन गेट से गुफाओं तक गाडियां और टैक्सियां भी मिल जाती हैं, लेकिन शेयर्ड गाडी तक चलेगी जब उसमें पर्याप्त सवारियां हो जायेंगी और टैक्सियों का मैं विरोधी हूं, वे बहुत पैसे मांगते हैं।
बहुत से शान्तिप्रिय लोगों का एक शौक है- बर्ड वाचिंग। वे किसी पार्क में, छोटे जंगल में, अभयारण्य में जाकर बैठ जाते हैं और घण्टों बैठे रहते हैं। तब उनमें सलीम अली जैसे गुण विकसित होने लगते हैं। वे पक्षियों की आदतों को जानने लगते हैं, उनके रहन सहन को जानने लगते हैं और हां, उनके नामों को भी जानने लगते हैं।
मुझे आज तक यह शौक नहीं चढा। आज सोचा कि कैमरा भी शक्तिशाली है, जगह भी बर्ड वाचिंग के लिये शानदार है, आज यह काम भी करके देखते हैं। एक एकान्त जगह पर जाकर बैठ गया। दुनिया भर के पक्षियों की आवाजें आ रही थीं। कैमरा तैयार किया और पेडों पर देखने लगा। कोई नहीं दिखा। बडी देर में दो तीन कौवे दिखाई पडे। फोटो खिंच गया उनका। मन में था कि रंग बिरंगे पक्षी दिखाई देंगे। उनका नाम तो मुझे पता नहीं होगा, लेकिन रंगों के हिसाब से नाम रख दूंगा जैसे कि नीलवर्ण ग्रीवा, रक्तवर्ण पंजे, पीतवर्ण पंख आदि। लेकिन खूब नजर दौडा ली, श्यामवर्ण ग्रीवा, श्यामवर्ण पंजे और श्यामवर्ण पंख के अलावा कुछ नहीं दिखा।
आधा घण्टा जब खत्म हो गया तो संकल्प लिया कि भाड में जाये बर्ड वाचिंग। पार्क में और आगे अन्दर चलते हैं। शहरों के आसपास जो भी इस तरह की एकान्त जंगली जगहें होती हैं, वहां शहरी ‘परिन्दे’ भी आ धमकते हैं और खूब प्यार-प्यार करते रहते हैं। बी नेचुरल का अनुभव जंगलों में ही होता है, शहरों में नहीं। ये शहरी परिन्दे जिन्हें ज्यादातर लोग प्रेमी जोडे कहते हैं, जंगल में अक्सर ज्यादा अन्दर तक नहीं जाते। इसलिये मेन गेट पर इनका घनत्व ज्यादा होता है और यह दूरी का विलोमानुपाती भी होता है। यानी मेन गेट से जितना दूर जाओगे, इनका घनत्व कम होता चला जायेगा। मैं इन परिंदों का खिलाफी नहीं हूं लेकिन अगर ऊपर की दो लाइनों में कुछ खिलाफत दिख रही है तो वो इसलिये कि मैं आज तक ना तो शहरी बन पाया हूं, ना ही शहरी परिंदा।
मैं नेशनल पार्क में तकरीबन पांच किलोमीटर पैदल घूमकर वापस आया तो मेन गेट के पास एक छोटा सा तम्बू दिखाई दिया। उसमें गियर वाली साइकिलें खडी थीं। साथ ही मराठी में कुछ निर्देश भी लिखे थे, मुझे समझ नहीं आये लेकिन पांच रुपये (५/-) समझ में आ गया। मैंने अन्दाजा लगाया कि ये साइकिलें पार्क में घूमने के लिये पांच रुपये प्रति घण्टा आदि के हिसाब से दी जाती होंगी। अगर ऐसा है तो पार्क में एण्ट्री करते समय मैंने बहुत अच्छा मौका गंवा दिया।
वापस बोरीवली स्टेशन आया। मैं पिछले दो घण्टे से कमर पर दस किलो का बैग लादे लगातार चल ही चल रहा था। बोरीवली आया तो बैठकर बडा सुकून मिला। लेकिन साथ ही शरीर का तापमान भी बडी तेजी से बढने लगा। गरीब रथ में चढने से पहले ही इस गरीब को बुखार हो गया। ऊपर से एसी डिब्बे की ठण्ड। चादर भी ओढ ली लेकिन कंपकंपी बन्द नहीं हुई। शरीर अहमदाबाद तक तपा ही रहा। कम्बल को जरा सा भी उघाडता तो भयंकर कंपकंपी होने लगती। बुखार पहले से ही था, नेशनल पार्क ने उसे और बढा दिया।
गरीब रथ में थर्ड एसी के ही डिब्बे होते हैं और वे नॉन एसी स्लीपर से सौ डेढ सौ रुपये ज्यादा ही पडते हैं। मेरी एसी श्रेणी से यात्रा करने की कोई इच्छा नहीं थी लेकिन जब कार्यक्रम बनाया था तो काफी माथापच्ची करके और कई दिन लगाकर बनाया था। बहुत सारी गणनाएं करनी पडी थीं, और उन गणनाओं के हिसाब से यही ट्रेन मेरे लिये मुम्बई से अहमदाबाद जाने के लिये सर्वोत्तम सिद्ध हुई।
इसमें एक कूपे में नौ बर्थ होती हैं। यानी साइड में भी तीन-तीन। कुछ साल पहले स्लीपर में भी इसी तरह का इन्तजाम किया गया था लेकिन उसके विरोध को देखते हुए इस इन्तजाम को स्लीपर से हटा दिया गया। स्लीपर में यह अमानुषिक सिद्ध हुआ।
मैंने अपनी जरुरत के हिसाब से ऊपरी बर्थ की मांग की थी लेकिन इस ट्रेन में मिल गई साइड अपर। इसका मुझे यह नुकसान है कि मेरे पैर नहीं फैलते।
जब मैं अपनी बर्थ पर बैग रख रहा था तो नीचे बैठे एक बुजुर्ग बोले कि बेटा, यह हमारी सीट है। मैंने पूछा कि बाबाजी कौन सी सीट है तुम्हारी? बोले कि यह नीचे वाली। मैंने कहा कि मुबारक हो, और ऊपर वाली मेरी है। अहमदाबाद तक साथ चलेंगे। बोले कि वो तो ठीक है लेकिन मैं बेचारा बुजुर्ग इंसान, थोडा सुकून से यात्रा करना चाहता हूं। मैंने कहा कि कोई दिक्कत नहीं है, अदला-बदली कर लेते हैं। लाओ तुम्हारा सामान कहां है, ऊपर रख देता हूं। आराम से सुकून से जाना। बोले कि नहीं नहीं, मुझे डिस्टर्बेंस पसन्द नहीं है। तुम्हारा नीचे वाली पर भी हिस्सा बनता है, मैं चाहता हूं कि तुम नीचे बैठकर मुझे डिस्टर्ब ना करो। ऊपर ही रहो। बुजुर्ग महाराज का यह इरादा सुनकर मेरे मुंह से निकला- बुड्ढे...।
वैसे भी मैं तपा जा रहा था, नीचे बैठने का मतलब ही नहीं था।
इस डिब्बे में जितने आदमी थे, उनसे तीन गुनी महिलाएं थीं। और उनकी वजह से जो भयंकर आवाजें आ रही थीं, अगर चीख-चिल्लाहट आती तो वे मधुर प्रतीत होतीं। एसी में सफर करने वाली महिलाओं और नॉन-एसी में सफर करने वाली महिलाओं के धन, ज्ञान, बोलचाल, पहनावे में जमीन आसमान का फर्क होता है। सब की सब तगडे हट्टे कट्टे परिवारों की लग रही थीं। सभी गुजराती थीं और ज्यादातर बात गुजराती-अंग्रेजी के मिश्रण में कर रही थीं।
गुजराती और अंग्रेजी ना जानने के बावजूद भी मैं समझ गया कि बात का मुद्दा क्या था। मुद्दा था ये तेरी सीट, ये मेरी सीट। एक ने दूसरी की सीट पर पैर रख दिया तो दूसरी चीख-प्रवचन देने लगती कि बेन, वो हमारी सीट है। दूसरी कैसे चुप रहती? हां, पता है, बेन। और बात चीख-प्रवचन से बदलकर मात्र चीखों में रह जाती। हर तरफ यही हाल था।
बराबर वाले कूपे में एक बुढिया थी। उन्हें अलवर जाना था। सबसे पहले तो उन्होंने अपना सामान अपनी नीचे वाली बर्थ पर फैला दिया, खुद दूसरे के यहां जा बैठी। दूसरे ने पूछा कि तुम्हारी सीट कौन सी है तो बोली कि वो सामने वाली है। खैर, किसी बात पर वलसाड के आसपास दोनों पक्षों में कहासुनी हो गई। एक कहता कि बुढिया, अपनी बर्थ पर जा। खुद तो अपनी पर सामान फैला रखा है, हमें हमारी वाली पर लेटने भी नहीं दे रही। बुढिया ने नसीहत दी कि तुम डे-टाइम में नीचे वाली पर लेट नहीं सकते, केवल बैठ ही सकते हो। इतना सुनते ही तीसरा पक्ष जिनकी बर्थ बुढिया वाली के ऊपर थी, कूदकर नीचे आ गया और कहने लगा कि अम्मा, सीट खाली करो, हमें बैठना है। दूसरी तरफ पहले और दूसरे पक्षों में इतनी मची कि बुढिया को अपनी बर्थ पर वापस आना पडा। यह सब भरुच तक होता रहा। इतना आसान नहीं था सबकुछ, जितना लिखना और पढना आसान लग रहा है। भयंकर चीख पुकार मची हुई थी। तीनों पक्षों में महिलाएं ज्यादा थीं।
अंकलेश्वर के पास ट्रेन का इंजन फेल हो गया। बान्द्रा से ही इसमें डीजल इंजन लगा हुआ था, हालांकि अहमदाबाद तक इलेक्ट्रिक रूट भी है। अंकलेश्वर में ट्रेन रुक गई। अच्छा हुआ कि प्लेटफार्म पर ही रुकी या फिर लोको पायलट सूझ-बूझ से प्लेटफार्म तक ले आया। वैसे भी अगर बीच सेक्शन में रुकती तो मुझपर कोई फरक नहीं पडता क्योंकि मैं चादर ओढे गर्मा-गरम हुआ पडा था। डेढ घण्टे बाद वडोदरा से दूसरा इंजन आया, तब जाकर ट्रेन आगे बढी।
अहमदाबाद पहुंचे। मुझे चादर से मुंह बाहर निकालते भी भयंकर कंपकंपी हो रही थी। किसी तरह बाहर निकला। भूख भी लगी थी, लेकिन खाने को मन नहीं था। मैं ओडिशा वाले बुखार के बाद से ही लगातार बोतलबन्द पानी ले रहा था, अब भी एक बोतल पानी लिया और एक ही सांस में पूरी बोतल पी डाली। रात दस बजे राजकोट के लिये सोमनाथ एक्सप्रेस से अगला रिजर्वेशन था।
अब मैं सोच रहा था कि इसी गरीब रथ से दिल्ली चला जाता हूं। जुर्माना लगेगा तो लगने दो। मैं बुखार के इस ‘पश्चिमी’ झटके से बिल्कुल टूट गया था। स्टेशन से बाहर जाने का भी बिल्कुल मन नहीं था कि गोली दवाई ले आऊं। किसी तरह प्लेटफार्म एक पर बने वेटिंग रूम तक गया, मोबाइल चार्जिंग पर लगाया और दस बजने की प्रतीक्षा करने लगा।
ठीक दस बजे सोमनाथ एक्सप्रेस चल पडी। यह ट्रेन राजकोट होते हुए वेरावल तक जाती है। अच्छा हां, एक जरूरी बात कर लेते हैं। बुखार तो है ही लेकिन जरूरी बातों के लिये कुछ नहीं है। यह ट्रेन पहले दिन की शाम को अहमदाबाद से वेरावल के लिये चलती है, दूसरे दिन की सुबह वेरावल पहुंचती है। दूसरे दिन की शाम को वेरावल से वापस चल देती है और तीसरे दिन सुबह अहमदाबाद पहुंचती है। यही ट्रेन अब तीसरे दिन की सुबह अहमदाबाद से जम्मू तवी के लिये प्रस्थान करती है जो जोधपुर, बीकानेर, भटिण्डा होते हुए चौथे दिन की शाम तक जम्मू तवी पहुंच जाती है। जम्मू से यह गाडी चौथे दिन की शाम को भटिण्डा के लिये चलती है, पांचवे दिन की सुबह भटिण्डा पहुंचती है। पांचवे दिन की शाम को भटिण्डा से चलकर छठे दिन की सुबह जम्मू तवी, छठे दिन की सुबह जम्मू तवी से चलकर सातवें दिन की शाम तक वापस अहमदाबाद। और फिर से वेरावल...
इस दौरान ये डिब्बे तीन अलग अलग ट्रेनों के रूप में सेवा देते हैं- वेरावल-अहमदाबाद, अहमदाबाद- जम्मू तवी, जम्मू तवी- भटिण्डा। तीनों ट्रेनें दैनिक हैं। हिसाब लगाइये कि इन तीन सेवाओं के लिये कितनी ट्रेनें यानी रैक चल रहे हैं। मैं बिना हिसाब लगाये बता रहा हूं कि छह ट्रेनें इन तीन सेवाओं को दे रही हैं।
इसमें एक मजेदार बात और भी है कि भटिण्डा-जम्मू तवी एक्सप्रेस (19225/19226) के रूप में यह पूरी तरह उत्तर रेलवे के अन्दर चलती है, इसके सभी ठहराव उत्तर रेलवे में ही हैं लेकिन कण्ट्रोल फिर भी, नम्बर फिर भी पश्चिम रेलवे का है। ट्रेन है पश्चिम रेलवे की और सेवा दे रही है उत्तर रेलवे को। इस तरह की मुझे पूरे भारत में एक ट्रेन और दिखती है। वो है छपरा- कानपुर एक्सप्रेस (18191/18192। यह गाडी असल में टाटानगर-छपरा एक्सप्रेस (18181/18182) के रूप में चलती है। यह दक्षिण-पूर्व रेलवे यानी टाटानगर हेडक्वार्टर की गाडी है। छपरा में समय मिलता है तो कानपुर का चक्कर भी लगा आती है। ये दोनों ट्रेनें यानी भटिण्डा-जम्मू और छपरा-कानपुर विलक्षण इसलिये हैं कि अपने पूरे सफर में ये अपने ही जोन में नहीं जातीं। पूरी तरह दूसरे जोन में चलती हैं। हो सकता है कि इस तरह की एकाध ट्रेनें और भी मिल जायें। सेवा का उत्कृष्ट नमूना।

बोरीवली नेशनल पार्क






















इस पार्क में एक टॉय ट्रेन भी चलती है। मेरे पास समय नहीं था, नहीं तो मैं ट्रेन का भी एकाध फोटो खींचने के लिये प्रतीक्षा कर सकता था।



अगला भाग: भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात

ट्रेन से भारत परिक्रमा यात्रा
1. भारत परिक्रमा- पहला दिन
2. भारत परिक्रमा- दूसरा दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. भारत परिक्रमा- तीसरा दिन- पश्चिमी बंगाल और असोम
4. भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन
5. भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम व नागालैण्ड
6. भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
7. भारत परिक्रमा- सातवां दिन- आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु
8. भारत परिक्रमा- आठवां दिन- कन्याकुमारी
9. भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
10. भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क
11. भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात
12. भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान
13. भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
14. भारत परिक्रमा- आखिरी दिन

Comments

  1. हम भी यही नेशनल पार्क के पास ही रहते थे, आपको पता है सुबह घूमने के लिये यहाँ की फ़ीस पहले १ रूपया साल भर के लिये हुआ करती थी ।

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  2. हमेशा की तरह सुंदर और रोचक.

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  3. Somnath express ek baddi vichitra train hai..mein Bathinda mein tha to Pathankot isi train se jata tha...to yeh bathinda morning mein aati thi,mujhe shaam wali ka pata nahi tha ki ek aur train hai..somnath express to pata chala ki yahi train 2 bar aati hai aur fir wapis jaati hai....Waise eska ek aur naam hai LINK EXPRESS

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  4. प्रकृति के संग संग कैमरे ने अच्छा साथ निभाया है..

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  5. चित्र तो बहुत सुंदर लगे । आशा है आपकी तबीयत अब सही होगी ।

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  6. आपकी यात्रा कथा और फोटोग्राफी बे मिसाल है...मुंबई आ कर एक फोन कर देते तो डाक्टर का इंतज़ाम भी हो जाता और खाने का भी....भाई हम नाम हो इत्ता तो बनता ही था...खैर अगली बार सही...मेरा मोबाईल न. नोट करो ताकि सनद रहे और वक्त पे काम आये...



    नीरज
    9860211911

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  7. अच्छी फोटोग्राफी हुई है... बोरीवली की सैर हमने भी कर ली...

    Suman
    http://www.tum-suman.blogspot.in/

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब