Skip to main content

Posts

Showing posts from December, 2012

2012 की घुमक्कडी का लेखा जोखा

2012 चला गया। इस साल घुमक्कडी में एकाध नहीं बल्कि तीन महान उपलब्धियां हासिल हुईं। आगे बताया जायेगा तीनों महान उपलब्धियों के साथ साथ पिछले बारह महीनों में की गई हर छोटी बडी यात्रा के बारे में। 1. मावली- मारवाड मीटर गेज ट्रेन यात्रा - मावली से मारवाड तक चलने वाली 152 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली इस ट्रेन में 7 फरवरी को यात्रा की गई। इससे एक दिन पहले रेवाडी से रींगस होते हुए फुलेरा तक की यात्रा भी इसी ट्रिप का हिस्सा है।

टहला बांध और अजबगढ

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । जब नीलकंठ महादेव से वापस जयपुर जाने के लिये चल पडे तो टहला से कुछ पहले अपने बायें एक बडी झील दिखाई पडी। इसमें काफी पक्षी आनन्द मना रहे थे। सर्दियां आने पर उत्तर भारत में पक्षियों की संख्या बढ जाती है। ये बढे हुए पक्षी सुदूर उत्तरी ध्रुव के पास यानी साइबेरिया आदि ठण्डे स्थानों से आते हैं। विधान ने बिना देर किये मोटरसाइकिल सडक से नीचे उतारकर झील के पास लगा दी। इसका नाम या तो मंगलसर बांध है या फिर मानसरोवर बांध। हमें देखते ही बहुत से पक्षी इस किनारे से उडकर दूर चले गये। मैं और विधान अपने अपने तरीके से इनकी फोटो खींचने की कोशिश करने लगे। मैं ना तो पक्षी विशेषज्ञ हूं, ना ही बडा फोटोग्राफर। फिर भी इतना जानता हूं कि पक्षियों की तस्वीरें लेने के लिये समय और धैर्य की जरुरत होती है। चूंकि कोई भी पक्षी हमारे आसपास नहीं था, सभी दूर थे, इसलिये मनचाही तस्वीर लेने की बडी परेशानी थी। मैं चाहता था कि एक ऐसी तस्वीर मिले जिसमें पक्षी पानी में तैरने के बाद उडने की शुरूआत करता है। उसके पंख उडने के लिये फैले हों और पैर पानी में हों। हा

नीलकंठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 26 नवम्बर 2012 की शाम के सवा चार बजे थे, जब हमने भानगढ से प्रस्थान किया। लक्ष्य था नीलकण्ठ महादेव। साढे पांच बजे हम नीलकण्ठ महादेव पर थे। पता नहीं किस वर्ष में राजा अजयपाल ने नीलकण्ठ महादेव की स्थापना की। यह जगह मामूली सी दुर्गम है। जब भानगढ से अलवर की तरफ चलते हैं तो रास्ते में एक कस्बा आता है- टहला। टहला से एक सडक राजगढ भी जाती है। टहला में प्रवेश करने से एक किलोमीटर पहले एक पतली सी सडक नीलकण्ठ महादेव के लिये मुडती है। यहां से मन्दिर करीब दस किलोमीटर दूर है। धीरे धीरे सडक पहाडों से टक्कर लेने लगती है। हालांकि इस कार्य में सडक की बुरी अवस्था हो गई है लेकिन यह अपने मकसद में कामयाब भी हो गई है। कारें इस सडक पर नहीं चल सकतीं, जीपें और मोटरसाइकिलें कूद-कूदकर निकल जाती हैं। आठ दिन की इस यात्रा में यह जगह मुझे सर्वाधिक पसन्द आई। साढे पांच बजे जब हम यहां पहुंचे तो एक छोटे से गांव से निकलते हुए मन्दिर तक पहुंचे। टहला से चलने के बाद पहाड पर चढकर एक छोटे से दर्रे से निकलकर एक घाटी में प्रवेश करते हैं। यह घाटी चारों तरफ से

भानगढ- एक शापित स्थान

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । आज की शुरूआत एक छोटी सी कहानी से करते हैं। यह एक तान्त्रिक और एक राजकुमारी की कहानी है। तान्त्रिक राजकुमारी पर मोहित था लेकिन वह उसे कोई भाव नहीं देती थी। चूंकि राजकुमारी भी तन्त्र विद्या में पारंगत थी, इसलिये उसे दुष्ट तान्त्रिक की नीयत का पता था। एक बार तान्त्रिक ने राजकुमारी की दासी के हाथों अभिमन्त्रित तेल भिजवाया। तेल की खासियत यह हो गई कि वह जिसके भी सिर पर लगेगा, वो तुरन्त तान्त्रिक के पास चला जायेगा। राजकुमारी पहचान गई कि इसमें तान्त्रिक की करामात है। उसने उस तेल को एक शिला पर फेंक दिया और जवाब में वह शिला तान्त्रिक के पास जाने लगी। बेचारे तान्त्रिक की जान पर बन गई। शिला क्रिकेट की गेंद तो थी नहीं कि तान्त्रिक रास्ते से हट जायेगा और वो सीधी निकल जायेगी। अभिमन्त्रित थी, तो तान्त्रिक कितना भी इधर उधर भागेगा, शिला भी उतना ही इधर उधर पीछा करेगी। जब तान्त्रिक के सारे उपाय निष्क्रिय हो गये, तो उसने श्राप दे दिया। श्राप के परिणामस्वरूप शिला फिर से बावली हो गई और अब वो नगर को ध्वस्त करने लगी। उसी ध्वस्त नगर का नाम है भा

साम्भर झील और शाकुम्भरी माता

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 24 नवम्बर 2012 को रात होने तक मैं साइकिल चलाकर पुष्कर से साम्भर झील पहुंच गया। अगले दिन जब पूछताछ की तो पता चला कि यहां से 23 किलोमीटर दूर एक लोकप्रिय मन्दिर है- शाकुम्भरी माता मन्दिर। इधर अपना भी फाइनल हो गया कि शाकुम्भरी तक चलते हैं। साम्भर झील खारे पानी की एक बहुत बडी झील है। राजस्थान के अर्धमरुस्थलीय इलाके में फैली यह झील जयपुर, अजमेर और नागौर जिलों में स्थित है। वैसे तो साम्भर लेक नाम से जोधपुर लाइन पर रेलवे स्टेशन भी है लेकिन नजदीकी बडा स्टेशन छह किलोमीटर दूर फुलेरा है। भौगोलिक रूप से इस झील को पानी की सप्लाई चारों तरफ से आती हुई कई नदियां करती हैं लेकिन शुष्क इलाके में उनसे नियमित सप्लाई सम्भव नहीं है। मानसून के दौरान ही इन नदियों में पानी रहता है, बाकी समय सूखी रहती हैं। इसलिये इसमें भू-गर्भ से पानी निकालकर भरा जाता है। पानी में नमक की मात्रा बहुत ज्यादा है, इसलिये यह झील नमक की ‘खेती’ के लिये जानी जाती है। झील में नमक ढोने के लिये रेल लाइनें बिछी हुई हैं। साम्भर लेक स्टेशन के पास नमक शोधन कारखाना है जहां

पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 23 नवम्बर 2012. पुष्कर में सालाना कार्तिक मेला शुरू हुए तीन दिन हो चुके थे। रोजाना सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे। आज के कार्यक्रम के अनुसार मुख्य आकर्षण ऊंटों और घोडों का नृत्य था। साइकिल यही आश्रम में खडी करके मैं पैदल मेला मैदान की तरफ चल पडा। मैदान में सामने नट अपना प्रदर्शन कर रहे थे। ये कल भी यही थे। और जैसे ही लाउडस्पीकर पर घोषणा हुई कि ऊष्ट्र-अश्व नृत्य प्रतियोगिता शुरू होने वाली है, तो नटों के यहां अचानक रौनक खत्म हो गई। सब लोग नृत्य स्थान पर चले गये। नृत्य स्थान के चारों तरफ इतनी भीड इकट्ठी हो गई कि पैर रखने की जगह भी नहीं बची। हालांकि मैंने मोर्चा जल्दी ही मार लिया था, इसलिये आगे पहुंच गया। बाहर तीन तरफ बहुत से पर्यटक ऊंटों पर बैठकर प्रतियोगिता देखने लगे। पहले ऊंट नृत्य हुआ जिसमें तीन ऊंटों ने भाग लिया। उसके बाद घोडे नाचे। घोडे जल्दी प्रशिक्षित हो जाते हैं इसलिये उनका नृत्य ज्यादा प्रभावशाली लगा। बाजे के साथ कदमताल करते घोडे संसाधनहीन लोगों द्वारा बेहतरीन प्रशिक्षण का नतीजा थे। ब्रह्मा के न

पुष्कर

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । एक बार मैं और विधान गढवाल के कल्पेश्वर क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे, तो एक विदेशी मिला। नाम था उसका केल्विन- अमेरिका में बढई है और कुछ समय बढईगिरी करके जमा हुए पैसों से दुनिया देखने निकल जाता है। उसने बताया कि वो कई महीनों से भारत में घूम रहा है। विधान ठहरा राजस्थानी... लगे हाथों पूछ बैठा कि राजस्थान में कौन सी जगह सर्वोत्तम लगी। केल्विन ने बताया कि एक किला है। उसने खूब दिमाग दौडाया लेकिन नाम नहीं बता सका। हमने अपनी तरफ से भी नाम गिनाये- आमेर , कुम्भलगढ, चित्तौडगढ, मेहरानगढ, जैसलमेर आदि लेकिन वो सबको नकारता रहा। आखिरकार अचानक बोला- बण्डी- उस किले का नाम है बण्डी। हम हैरान हो गये कि केल्विन की नजर में सर्वोत्तम बण्डी नामक किला है लेकिन यह है कहां। हमने भी पहली बार बण्डी नाम सुना। लेकिन जल्द ही पता चल गया कि वो बूंदी के किले की बात कर रहा है। बण्डी यानी बूंदी। तभी से मुझे एक बात जंच गई कि बूंदी का किला एक बार जरूर देखना चाहिये। आज जयपुर में था तो बूंदी जाने के विचार मन में आने लगे। सुबह जब होटल से बाहर निकला तो बूंदी

और ट्रेन छूट गई

नवम्बर में एक ऐसा अदभुत योग बन रहा था कि मुझे अपने खाते से मात्र दो छुट्टियां खर्च करके उनके बदले में आठ छुट्टियां मिल रही थीं। यह योग बीस से सत्ताईस नवम्बर के बीच था। उधर चार दिसम्बर से बीस दिसम्बर तक सरकारी खर्चे से राजधानी एक्सप्रेस से कर्नाटक की यात्रा भी प्रस्तावित थी। राजधानी से जाने और आने के टिकट बुक हो चुके थे। मन तो नहीं था नवम्बर में कहीं जाने का लेकिन जब दो के बदले आठ छुट्टियां मिल रही हों तो ऐसा करना पडा। एक साइकिल यात्रा का विचार होने लगा। पिछली नीलकण्ठ वाली साइकिल यात्रा से उत्साहित होकर सोच लिया कि ये आठों दिन साइकिल को ही समर्पित कर देने हैं। इसका दूसरा फायदा है कि सप्ताह भर बाद होने वाली कर्नाटक यात्रा की दिशा तय हो जायेगी- साइकिल ले जानी है या नहीं। खूब सोच विचार करके भुज जाना पक्का हो गया। कहां ट्रेन से साइकिल लेकर उतरना है, कब कब कहां कहां जाना है, सब सोच लिया गया। एक दिन में 100 किलोमीटर साइकिल चलाने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन भुज जाने में अजमेर आडे आ गया। उन दिनों एक तो पुष्कर में मेला था और दूसरे अजमेर में भी मुसलमानों का कुछ बडा मौका था। तो अजमेर तक तो