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मुगलसराय से गोमो पैसेंजर ट्रेन यात्रा

दिल्ली से मुगलसराय
1 सितम्बर 2014, सोमवार
सितम्बर की पहली तारीख को मेरी नंदन कानन एक्सप्रेस छूट गई। सुबह साढे छह बजे नई दिल्ली से ट्रेन थी और मुझे ऑफिस में ही सवा छह बज गये थे। फिर नई दिल्ली जाने की कोशिश भी नहीं की और सीधा कमरे पर आ गया। इस बार मुझे मुगलसराय से हावडा को अपने पैसेंजर ट्रेन के नक्शे में जोडना था। ऐसा करने से दिल्ली और हावडा भी जुड जाते। दिल्ली-मुम्बई पहले ही जुडे हुए हैं। पहले भी हावडा की तरफ जाने की कोशिश की थी लेकिन पीछे हटना पडता था। इसका कारण था कि भारत के इस हिस्से में ट्रेनें बहुत लेट हो जाती हैं। चूंकि स्टेशनों के फोटो भी खींचने पडते थे, इसलिये सफर दिन में ही कर सकता था। इस तरह मुगलसराय से पहले दिन चलकर गोमो तक जा सकता था और दूसरे दिन हावडा तक। हावडा से वापस दिल्ली आने के लिये वैसे तो बहुत ट्रेनें हैं लेकिन शाम को ऐसी कोई ट्रेन नहीं थी जिससे मैं अगले दिन दोपहर दो बजे से पहले दिल्ली आ सकूं। थी भी तो कोई भरोसे की नहीं थी सिवाय राजधानी के। राजधानी ट्रेनें बहुत महंगी होती हैं, इसलिये मैं इन्हें ज्यादा पसन्द नहीं करता।

इसका तरीका निकाला कि हावडा से रातोंरात पटना आया जाये। दिन में पटना से मुगलसराय तक पैसेंजर यात्रा की जाये और शाम को वाराणसी से चलकर अगले दिन सुबह तक दिल्ली लौटा जाये। इसमें मुझे एक और अतिरिक्त छुट्टी लेनी पडेगी। लेकिन सुकून इस बात का रहेगा कि दिल्ली और पटना भी जुड जायेंगे।
अब कैसे मुगलसराय जाऊं? एक बार तो मन में आया कि साधारण डिब्बे में चलता हूं। लेकिन रातभर का जगा होने के कारण व बिहार रूट होने के कारण साधारण डिब्बे में चढना ही पाप था। कमरे पर आकर ट्रेनों में सीटें देखीं तो तीन ट्रेनों में खाली सीटें मिली- रांची राजधानी, भुवनेश्वर राजधानी और भागलपुर गरीब रथ में चेयरकार। गरीब रथ का कोई भरोसा नहीं था कि पांच बजे से पहले मुगलसराय पहुंच जायेगी या नहीं। इसका रिकार्ड आजकल भी छह छह घण्टे विलम्ब से चलने का है, तो इससे जाने का इरादा बदल लिया। अब बची राजधानियां। वैसे तो मैं पंजाब या राजस्थान भी जा सकता था। वहां अभी भी मेरे अनदेखे कई रेलमार्ग बचे हुए हैं, लेकिन ऐसा करने से मुगलसराय-हावडा मार्ग एक बार फिर अनछुआ रह जायेगा। आखिर जी कडा करके भुवनेश्वर राजधानी में आरक्षण करा लिया। लगभग 1500 रुपये लगे।
शाम चार सवा चार बजे नई दिल्ली से भुवनेश्वर राजधानी चलती है। इस समय नई दिल्ली से कई राजधानियां निकलती हैं। बराबर वाले प्लेटफार्म पर पटना राजधानी खडी थी जो भुवनेश्वर के बाद चलेगी।
तय समय पर गाडी चल पडी। चलने से पहले मैंने प्लेटफार्म से ‘मॉंक हू सोल्ड हिज फेरारी’ का हिन्दी अनुवाद खरीद लिया। बर्थ ऊपर वाली थी और जाकर लेट गया और किताब पढने लगा। समय पर खाने-पीने को आता रहा।
यह मेरी राजधानी ट्रेन में दूसरी यात्रा थी। पहली यात्रा भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही थी। और इस यात्रा में ट्रेन की हालत देखकर तरस आ गया। राजधानी भारत की सबसे वीआईपी ट्रेन है। सुना है कि पूर्व की तरफ जाने वाली राजधानियां खराब हालत में हैं और दक्षिण व पश्चिम की तरफ जाने वाली शानदार हालत में। देखते हैं उन शानदार राजधानियों में बैठने का मौका कब मिलेगा? इस ट्रेन में टॉयलेट गन्दगी से भरा हुआ था और ट्रेन के हिलने से गन्दगी फर्श पर फैल भी रही थी। डिब्बे की छत की शीट जगह-जगह से थोडी उखडी भी थी।
वातानुकूलित ट्रेनों में सबसे बेकार की चीज मुझे जो लगती है, वो है अटेंडेंट। अटेंडेंट समाज के सबसे घटिया समुदाय का आदमी होता है यानी अनपढ समुदाय का। फिर राजधानियों में ‘बडे’ लोग यात्रा करते हैं तो वो अनपढ आदमी स्वयं को सबका बॉस समझने लगता है। कुछ काम न करना और सबको हिदायतें देते रहना उसका काम होता है।
इसी कूपे में एक साहब भी यात्रा कर रहे थे। ये महाशय कोई बडे सरकारी अधिकारी थे। इनके साथ एक नौकर भी था। मैंने पूछा तो नहीं लेकिन बोलचाल से साफ पता चल जाता है। नीचे बैठे दूसरे लोगों से वे बात कर रहे थे और बिना पीएम, सीएम और गवर्नर के बात नहीं कर रहे थे। मसलन, मुझे गवर्नर साहब को अटैंड करने जाना था, गवर्नर साहब से इतनी देर बात हुई आदि। बडे लोगों के हावभाव तो अपने ही आप बदल जाते हैं लेकिन ये सभ्य बडे आदमी थे। सामने वाले से शालीनता से बात कर रहे थे। बाद में मैंने भी कुछ बातें कीं, तब भी वही शालीनता बरकरार रही। अच्छा लगता है जब कोई बडा आदमी इस तरह बात करता है।
रात दो बजे गाडी मुगलसराय पहुंची। इसके तुरन्त बाद ही बराबर वाले प्लेटफार्म पर पटना राजधानी भी आ गई। उत्तर मध्य रेलवे की इलाहाबाद डिवीजन के इस मार्ग पर केवल राजधानी ट्रेनों की ही इज्जत है। बाकी सभी ट्रेनें लेट चलती हैं, सिवाय उत्तर-मध्य रेलवे की गाडियों को छोडकर जैसे प्रयागराज और कालिन्दी।

मुगलसराय से गोमो
सुबह साढे पांच बजे आसनसोल पैसेंजर है। पूरे दिन उसी ट्रेन में बैठे रहना है। नींद आयेगी। मैंने एक गलती कर दी कि ओढने बिछाने को कुछ भी नहीं लाया अन्यथा पैदल पार पथ पर अच्छी हवा लग रही थी। सबसे पहले गोमो का टिकट लिया और उसके बाद डेढ सौ रुपये देकर डोरमेट्री में एक बिस्तर ले लिया और सो गया। पांच बजे उठा। जब तक नहाया, तब तक ट्रेन मुगलसराय आ चुकी थी।
ठीक समय पर गाडी यहां से चल पडी। हां, अब मैं भोजपुरी भाषी प्रदेश में हूं तो कहना चाहिये कि गाडी ठीक समय पर खुल गया। लेकिन अगले स्टेशन गंज ख्वाजा पहुंचते पहुंचते एक घण्टे लेट हो चुकी थी। इसके बाद चन्दौली मझवार और सैयद राजा स्टेशन हैं। सैयद राजा उत्तर प्रदेश का आखिरी स्टेशन है। इसके बाद बिहार आरम्भ हो जाता है और बिहार का पहला स्टेशन है कर्मनाशा। यह नाम इसी नाम की नदी के कारण पडा। बहुत समय पहले ‘कर्मनाशा की बाढ’ नाम की एक कहानी पढी थी, पाठ्यक्रम में थी। मुझे पक्का तो याद नहीं लेकिन उसमें एक ऐसी महिला की कहानी है जो विवाह से पहले ही मां बन गई थी। उसके बाद कर्मनाशा में बाढ आ गई तो अन्धविश्वासी गांव वालों ने इस बाढ का जिम्मेदार उस महिला को ही माना। इसके बाद तो ध्यान नहीं क्या हुआ लेकिन शायद यह एक सुखान्त कहानी थी।
इसके बाद तो स्टेशन आते गये, जाते गये लेकिन भीड नहीं बढी। बाहर चारों तरफ केवल एक ही फसल दिखाई दे रही थी और वो थी धान। बिहार, बंगाल, झारखण्ड, ओडिशा और पूरे पूर्वोत्तर में धान ही मुख्य फसल है। धान का अर्थ है कि यहां पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन अगर बारिश में थोडा भी विलम्ब हो जाये तो यहां सूखा पडते भी देर नहीं लगती। मैं अक्सर शेष भारत की खेती की तुलना पश्चिमी यूपी, हरियाणा और पंजाब से करता हूं। जाहिर है यहां भी करूंगा। वहां धान मुख्य फसल नहीं है बल्कि मुख्य फसल है गेहूं। गेहूं शुष्क जलवायु की फसल होती है। ऐसा पुराने काल से होता आ रहा है। फिर मानसून की मामूली सी जानकारी रखने वाला भी जानता है कि भारत में मानसून दो चरणों में प्रवेश करता है। पहले चरण में पश्चिमी घाट यानी केरल कर्नाटक से शुरू होकर दक्षिणी प्रायद्वीप को लांघकर बंगाल की खाडी में चला जाता है। दूसरे चरण में बंगाल की खाडी से पुनः प्रकट होता है बंगाल-ओडिशा में। यहां से यह उत्तर की ओर बढता है और हिमालय के कारण पश्चिमोत्तर दिशा में बढने लगता है। इसी मार्ग में सम्पूर्ण धान प्रदेश आ जाता है यानी बिहार भी। हरियाणा-पंजाब तक पहुंचते पहुंचते जाहिर है मानसून बिहार-बंगाल के मुकाबले क्षीण ही होता है। इसलिये हरियाणा-पंजाब में हमेशा बिहार-बंगाल के मुकाबले कम बारिश होती है।
मेरा इतना सब कहने का मतलब है कि बिहार फिर क्यों इतना पिछडा है? मौसम मेहरबान, जमीन उपजाऊ, मेहनतकश लोग; फिर क्या वजह है कि बिहार भारत का बदतम प्रदेश है? पंजाब और बिहार में प्राकृतिक तौर पर बडी समानताएं हैं। दोनों ही राज्य पूर्ण मैदानी हैं, दोनों के उत्तर में हिमालय है। हिमालय से नदियां निकलकर सीधे दोनों राज्यों में प्रवेश करती हैं और जमीन को उपजाऊ बनाती हैं। दोनों राज्यों में पर्यटन भी कोई ज्यादा नहीं है। एक में जहां ले-देकर अमृतसर है तो दूसरे में बोधगया। इनके अलावा कुछ नहीं। सामाजिक परिवेश की मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन दोनों में पहले जमींदारी प्रथा थी। एक जमींदार होता था और कई-कई गांव उसकी हद में होते थे।
फिर क्यों इतनी असमानताएं हैं? इसका जवाब अमृतसर और कटिहार के बीच चलने वाली आम्रपाली एक्सप्रेस देगी। इसमें कम से कम नब्बे प्रतिशत यात्री बिहारी होते हैं। दूसरे राज्यों में पलायन करना बिहारियों में भर-भर कर भरा होता है। और पलायन भी किसलिये? मजदूरी करने... गोबर ढोने... पत्थर कूटने... चिनाई करने। इस बारे में अजीत सिंह कुछ इस प्रकार लिखते हैं-
“एक आदमी बेचारा अनपढ गंवार अंगूठा टेक ... उसके पास दो बीघा खेत हैं सूखा बंजर... न दाना न पानी... न वर्षा न नहर न कुआं... घास का तिनका तक नहीं उगता कि बकरी ही खा के पेट भर ले... उसके बच्चे भूखे मरते हैं... दर दर की ठोकरें खाते हैं... लोगों की गालियां सुनते हैं... ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे... उससे आप सिर्फ सहानुभूति ही जता सकते हैं।
एक दूसरा आदमी है जिसके पास दुनिया का सबसे उपजाऊ खेत... भरपूर बारिश... जमीन में बीस फीट पे पानी... शानदार मौसम... सभी फसलों के लिये उपयुक्त जमीन और जलवायु... ऊपर से पढा लिखा अफलातून... उसके बाप दादा सब अरस्तू और सुकरात... उसके दादा के दरवाजे पर हाथी झूमता था... परदादा उसका दुनिया पे राज करता था... अब उसके बच्चे अगर भूखे मरते हों... दुनिया भर में दर दर की ठोकरें खाते हों... दुनिया भर में तिरस्कृत हों... धिक्कारे जायें... तो ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे?... गाली देंगे कि नहीं?... यही ना कहेंगे कि अबे तुझे तो दुनिया का सबसे सम्पन्न आदमी होना चाहिये और तेरे बच्चे ठोकरें खा रहे हैं?
यही हाल है हमारे यूपी बिहार का... मैं जब भी यूपी बिहार पे कोई पोस्ट लिखता हूं युद्ध शुरू हो जाता है... लोग तलवार निकाल लेते हैं... अरे भैया गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र जाकर देखो... सूखा बियावान बंजर... न पानी न खेती बाडी... फिर भी हमसे कितना आगे हैं... और एक हम... गंगा किनारे वाले... धरती का सबसे उपजाऊ प्रदेश... अनाज छींटा दो बस खेत में... सोना उगलने वाली धरती... प्रचुर मात्रा में पानी... दोनों फसलें मिलती हैं... दलहन तिलहन सब होता है... फल सब्जियों का भण्डार... ऊपर से इतने मेधावी... इतने आईएएस देने वाले... पढे लिखे... बाप हमारे मगध पाटलिपुत्र से दुनिया पे राज कर गये... और हम साले यहां लोगों का गोबर फेंक रहे हैं पंजाब, हरियाणा, गुजरात में?... जूठे बर्तन मांजते हैं 3000 रुपये में?... रिक्शा खींचते हैं... मजदूरी करते हैं और फिर भी धिक्कारे जाते हैं।
दुनिया पे राज करने वाले आज फकीर बने घूमने को मजबूर... अरे भैया हमने तो सिर्फ याद दिलाया है कि बेटा तुम्हारे बाप के दरवाजे हाथी झूमता था... तुम साले सिक्कड लिये हमारे ही पीछे दौड पडते हो...
लालू मुलायम मायावती से बचो भैया... फिर हाथी झूमेगा तुम्हारे दुआरे... तुम्हारे लडके भी घी खायेंगे दाल में डाल के...”
गौरतलब है कि अजीत सिंह ‘बिहारी’ हैं।
चलिये, बहुत हो गया। नहीं तो बिहारी मित्र जो इसे पढ रहे हैं, वे नाराज हो जायेंगे। अरे हां, एक खास बात और रह गई। पंजाब में जो नदियां हैं, वे हिमाचल से आती हैं यानी भारत का पानी भारत में। हिमाचल में बडे बडे बांध बने हैं। सारा नियन्त्रण हमारे ही हाथ में है। जबकि बिहार की हिमालयी नदियों का पानी नेपाल से आता है। नेपाल ने जो दे दिया, उसी से गुजर-बसर करनी है। ज्यादा दे दिया तो बाढ भी झेलनी है। लेकिन यह समस्या सरकारों को सुलझानी थी। न भारत सरकार इस मामले में कुछ कर रही है और बिहार सरकार तो... माशा अल्लाह।
सासाराम जंक्शन एक घण्टे की देरी से पहुंची। सासाराम से एक लाइन आरा भी जाती है। सासाराम से आगे करवन्दिया और पहलेजा के बाद डेहरी ऑन सोन स्टेशन है। यह सोन नदी के किनारे स्थित है। डेहरी का अर्थ क्या हुआ? डेहरी अर्थात देहरी यानी द्वार। डेहरी ऑन सोन यानी सोन के द्वार पर। सही नाम है।
सोन नदी पार करके सोन नगर जंक्शन स्टेशन है। यहां से एक लाइन दक्षिण की ओर झारखण्ड में गढवा रोड और बरवाडीह की ओर चली जाती है। बडा भयंकर नक्सली इलाका है वह। लेकिन अगर रेलवे को झारखण्ड जैसे राज्यों से आर्थिक लाभ उठाना है तो ऐसे इलाकों में ट्रेन तो चलानी ही पडेगी। वहां रेलगाडियों को रोकना, उडाना बिल्कुल आम बात है। कुछ समय पहले राजधानी एक्सप्रेस भी नक्सलियों ने बन्धक बना ली थी। इसके अलावा लोको पायलटों और गार्डों को भी बन्धक बना लिया जाता है। कई-कई दिन बाद छोडा जाता है अक्सर तब जब उनकी कोई मांग मान ली जाती है।
सोन नगर के बाद चिरैला पौथू है और उसके बाद पुनपुन नदी। पुनपुन पार करते ही एक बोर्ड दिखाई देता है जिस पर लिखा है- अनुग्रह नारायण रोड घाट स्टेशन। यहां ट्रेन नहीं रुकी और अगले स्टेशन अनुग्रह नारायण रोड पर रुकी। यह घाट स्टेशन कभी आबाद स्टेशन रहा होगा या फिर आज भी किसी तीज त्यौहार के अवसर पर रुकती भी होगी। इसी तरह का एक और गुमनाम स्टेशन है- देवरिया कुरम्हा नरेश हाल्ट, जो अनुग्रह नारायण रोड से अगला स्टेशन है। इसका भी जिक्र किसी रेलवे साइट पर नहीं मिलता। फिर तो ट्रेन चलती रही, रुकती रही, स्टेशन निकलते गये, यात्री चढते रहे, उतरते रहे- फेसर, बघोई कुसा, जाखिम, देव रोड, रफीगंज, इस्माइलपुर, गुरारू, परैया, कष्ठा और गया जंक्शन। ट्रेन गया बिल्कुल ठीक समय पर पहुंची यानी पौने बारह बजे। गया से एक लाइन पटना भी जाती है। सुना है उस पर बडी भारी भीड होती है ट्रेनों में। भीड वाली ट्रेनों में यात्रा करते मेरे होश उडते हैं।
गया से साढे बारह बजे प्रस्थान किया यानी आधे घण्टे विलम्ब से। ट्रेन में भीड बिल्कुल नहीं थी। अगला स्टेशन है शहीद ईश्वर चौधरी हाल्ट। जितने हाल्ट आपको बिहार में मिलेंगे, उतने शायद ही किसी और राज्य में मिलें। बताते हैं कि यह सब लालू की करामात है। लालू जब रेलमन्त्री थे, तब उन्होंने ऐसा किया। यात्री अपने गांवों के सामने ट्रेन की चेन खींच देते थे। लालू ने ऐसे स्थानों को हाल्ट बना दिया। इससे ट्रेनें आधिकारिक तौर पर रुकने लगीं और टिकट काउण्टर खोल देने से रेलवे को आमदनी भी बढी। वैसे पैसेंजर ट्रेनों से रेलवे को कोई आमदनी नहीं होती। जितने ज्यादा स्टेशनों पर ट्रेन रुकेगी, उसका प्रचालन खर्च उतना ही ज्यादा बढेगा। इससे अच्छा होता कि ट्रेनों से चेन स्थायी रूप से ही निकलवा देते। खींचो बेटा, अब क्या खींचोगे?
मानपुर जंक्शन से एक लाइन कियूल की तरफ चली जाती है। फिर बन्धुआ, टनकुप्पा, बंशीनाला हाल्ट, पहाडपुर, गुरपा स्टेशन आते हैं। गुरपा के बाद छोटा नागपुर की पहाडियां शुरू हो जाती हैं। बिहार-झारखण्ड सीमा इन्हीं छोटा नागपुर की पहाडियों से होकर ही जाती है। यहां पूरा पहाडी मार्ग है और ट्रेनों की गति साठ किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। बीच बीच में ब्लॉक हट बने हुए हैं। पता नहीं ब्लॉक हट का क्या अर्थ है लेकिन ये यहां पैसेंजर ट्रेनों के लिये हाल्ट का काम करते हैं। लगातार तीन ब्लॉक हट हैं- यदुग्राम ब्लॉक हट, बसकटवा ब्लॉक हट और नाथगंज ब्लॉक हट। फिर दिलवा स्टेशन आता है। देश में दूसरी जगहों पर भी ब्लॉक हट हैं लेकिन वहां ट्रेनें नहीं रुकतीं। यहां कोई प्लेटफार्म नहीं था और न ही स्टेशन का बोर्ड लगा था। बस घोर जंगल में रेलवे लाइन के किनारे एक घर सा बना था और उसी की दीवार पर नाम लिखा था। ट्रेन रुकती और चल देती। मैं बडा किंकर्तव्यविमूढ रहा कि इन ब्लॉक हटों को अपनी स्टेशन-लिस्ट में शामिल करूं या न करूं। बाद में जब झारखण्ड और आगे बंगाल में बाकायदा ब्लॉक हट व ब्लॉक हाल्ट के स्टेशन देखे, बोर्ड देखे तो तय कर लिया कि इन्हें अपनी लिस्ट में शामिल करूंगा।
यहां फोन नेटवर्क नहीं था, इसलिये पता चलना मुश्किल था कि बिहार से झारखण्ड में कब प्रवेश कर गये? गुरपा बिहार में है और दिलवा झारखण्ड में। लेकिन बीच में जो तीन ब्लॉक हट हैं, वे किस राज्य में हैं, यह पता नहीं चल सका। एक-दो यात्रियों से पूछा भी लेकिन सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला। आखिरकार उन्हें बिहार में मान लिया गया। तो इस प्रकार दिलवा झारखण्ड का पहला स्टेशन बन गया। मैं दिलवा में नीचे प्लेटफार्म पर उतरा और पहली बार झारखण्ड की धरती को देखने के लिये ईश्वर को धन्यवाद दिया।
दिलवा में पुरी जाने वाली पुरुषोत्तम एक्सप्रेस और हटिया जाने वाली झारखण्ड स्वर्ण जयन्ती एक्सप्रेस निकलीं। बराबर में यात्री बातें कर रहे थे। भाषा भिन्नता होने के बावजूद भी ज्यादातर बात मेरी समझ में आ रही थी। विषय राजनीति ही था। लालू की भर्त्सना की जा रही थी। एक ने कहा कि लालू की छोटी सोच का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने गरीब रथ चलाई, जबकि मोदी बुलेट ट्रेन चलवायेंगे। दूसरे ने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है। लालू ने फुलवरिया के लिये पैसेंजर ट्रेन की घोषणा की थी और कहा था कि हम अपने गांव पैसेंजर ट्रेन से जायेंगे। होते-होते बात बिहार के वर्तमान मुख्यमन्त्री जीतन राम पर आ गई। उसने हाल ही में कहा था कि बाढ पीडित चूहे खाकर गुजारा करें, मैंने भी चूहे खाये हैं। बडी आलोचना होती रही।
दिलवा से आगे लालबाग ब्लॉक हट, गझंडी, कोडरमा, लाराबाद ब्लॉक हट, हीरोडीह, सरमाटांड, यदुडीह ब्लॉक हाल्ट, परसाबाद, दरसा ब्लॉक हाल्ट, चौबे, केशवारी ब्लॉक हाल्ट, हजारीबाग रोड, गडिया बिहार, चिचाकी, करमाबाद, चौधरीबान्ध, चेगरो ब्लॉक हट, पारसनाथ, निमियाघाट, भोलीडीह ब्लॉक हाल्ट और आखिरकार गोमो जंक्शन पहुंचते हैं। गोमो का पूरा नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जंक्शन गोमोह है।
गोमो से करीब चालीस किलोमीटर दूर बोकारो है जहां मित्र अमन मलिक जी रहते हैं। मैंने इस यात्रा की जानकारी फेसबुक पर सार्वजनिक कर दी थी। वे लगातार सम्पर्क में थे। सबसे पहले जब उन्होंने पूछा कि गोमो में कहां रुकोगे तो मैंने कहा कि या तो किसी होटल में या फिर स्टेशन पर ही। बोले कि गोमो में तो कोई होटल ही नहीं है। फिर कहा कि वे भी गोमो आ रहे हैं और साथ ही कहीं रुक जायेंगे। पूरे गोमो में उनके जानकार और रिश्तेदार हैं। यही बात मुझे परेशान करने लगी कि वे अपने चार काम छोडकर मेरे लिये गोमो आयेंगे जबकि मुझे वहां से सुबह-सुबह आगे के लिये निकल जाना है।
कुछ देर बाद फिर फोन आया कि जिनके यहां रुकना था, वे आज गोमो में नहीं हैं तो तुम धनबाद चले जाओ। वहां रुकने की कोई समस्या नहीं है। मैंने उन्हें बताया कि मैं आज धनबाद नहीं जा सकता क्योंकि गोमो पहुंचते-पहुंचते ही अन्धेरा हो जायेगा और मैं गोमो से धनबाद के बीच के स्टेशनों के फोटो नहीं ले पाऊंगा। हां, ऐसा करूंगा कि पारसनाथ रुक जाता हूं। वह बडा जैन तीर्थ है और दिल्ली-कोलकाता हाइवे पर भी है तो होटल मिल ही जायेंगे। फिर भी उन्होंने धनबाद जाने का दबाव डाले रखा। मैंने यहीं एक गलती कर दी। मुझे कह देना चाहिये था कि ठीक है, धनबाद ही चला जाऊंगा। वे कम से कम निश्चिन्त तो हो जाते। और रुक पारसनाथ में जाता। मैं भी अडा रहा कि नहीं, आज धनबाद नहीं जाऊंगा। फिर उन्होंने समाधान निकाला और कुछ देर बाद कहा कि गोमो ही आ जाओ। वहीं मिलते हैं। रुकने को हो जायेगा।
आखिरकार आधे घण्टे की देरी से सवा छह बजे ट्रेन गोमो पहुंच गई। मैंने जब अमन जी को बताया कि गोमो पहुंच चुका हूं तो वे रास्ते में थे और कहा कि उन्हें आधा घण्टा और लगेगा। उन्होंने मेरा नम्बर अपने मित्र को दिया और मित्र स्टेशन के बाहर पहले से ही तैनात थे। ज्यादा देर नहीं हुई फिर अमन साहब को आने में। गोमो असल में रेलवे की जमीन पर स्थित है। यह काफी बडा जंक्शन है और यहां से चारों दिशाओं में मालगाडियां आने-जाने में लगी ही रहती हैं। यात्री गाडियां तो हैं ही।
काफी लम्बा लेख हो गया। अब ये बताने की जरुरत नहीं है कि अमन के और भी कई मित्र व सम्बन्धी एकत्र हो गये। एक ढाबे पर तीन घण्टे तक खाना-पीना होता रहा और आखिरकार गोमो से करीब आठ-दस किलोमीटर दूर अमन के एक ठिकाने पर जाकर सो गये।


1. मुगलसराय से गोमो पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. गोमो से हावडा लोकल ट्रेन यात्रा
3. पटना से दिल्ली ट्रेन यात्रा




Comments

  1. सुंदर रेल यात्रा वर्णन,साथ में यू.पी. व बिहार की प्रष्ठभूमि की भी जानकारी.
    अजीत जी नें क्या खुभ लिखा है,वह भी विचारणीय है.

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  2. आपने बहुत उम्दा और रोचक वर्णन किया अपनी रेल यात्रा का. ऐसा लगा जैसे मैं खुद ही रेल से यात्रा कर रहा हूँ. उत्तर प्रदेश और बिहार की ऐतहासिक प्रष्ठभूमि और यथास्थिति का जो परिद्रश्य आपने प्रस्तुत किया वाकई कई प्रकार के सवाल खड़े कर गया. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है की बिहारियों की प्रतिभा का ह्रास हुआ है. यह नागरिको में जागरूकता की कमी और क्षेत्रीय दलों की गलत नीतियों का परिणाम है. साल दर साल इन दोनों राज्यों में शैक्षिक गुणवत्ता अपने निम्नतम स्तर की और बढ़ रही है. उस पर यहाँ की सरकारे शिक्षा के प्रति गंभीर नहीं है. क्योंकि ये सरकारे जानती है की अगर लोग शिक्षित, चिंतनशील और विचारशील हो जायेंगे तो कौन इनको सम्प्रदाय जातिवाद आरक्षण के नाम पर वोट देगा. वस्तुस्तिथि तो यह है की इन दोनों राज्यों की लगभग ८०% जनता लोकतंत्र का मतलब भी नहीं समझती है. आपके द्वारा सुन्दर लेख प्रस्तुति के लिए धन्यवाद और शुभकामनाये .......

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  3. Dusre state me playan karna biharyo me bhar bhar k bhara hota hai.....
    Aisi baat nahi hai...aap v to up k hai .....aur aap dehli me naukari karte hai..kiya aapne up se playan nahi kiya...kiya itne bade up me aapko job nahi milta...lekin metro ko jarurat thi aap usme safal hwe ...aur aap ne up se playan kiya...wise hi pure desh me majdooro ki jarurat ko pura karne k liye bihar se log playan karte hai..agar ye log majdoori na kare patthar na kute chunai na kare to yakin maanye mere aur aapke jaise logo ko tant laga ke sona padega delhi me....
    Playan karna majboori hai..khushi nahi.........
    Papi pet ka sawal hai neeraj babu.....

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  4. majboori kyn hai kynki bihari log apne bihar me kaam karein wahi settle ho to koi majboori nahi hai sirf yah log lalach k liye bade shahro ki taraf bhagte hai... ese logo mein govt ko ban lagan chahiye..

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  5. Sirf bihari hi keo ...svi state k log apne hi state me kaam kare ....lalach k liye log bade shahar to kiya bidesh bhagte hai...kise jyada kamane ka lalach nahi hai......
    Keo gandhi ji ki aatma to dhukhi kar rahe ho bhai....is desh me jo jahan jana khana kamana chahta hai..kamane do khane do...
    Jeo aur jeene do....
    Jab mahaan sab aatma is mudde ko suljha nai pai to hum apna sar keo phode...

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  6. Neeraj bhai.....
    Wakai majedar rail yatra hai aapki...rajdhani ki aisi durdasa keo hai..samaj me nahi aati....
    Aap ne playan ka mudda utakar madhumakkhi k chatte me haath daal diya...ye ek ghambhir samasya hai....samasya kiya hai sab ko pata hai..north bihar badh grast illaka hai...yahan ek hi fasal hoti hai..april se november tak kissan fasal nahi bota hai badh k kaaran....yahan kissan k pass chote chote khet hai...jyadatar nadia isi illake hokar behti hai...nepal ki meharbani alag hai....ab na to koi badh grast illake me karkhana lagana chahega.....ab logo k paas playan k alawa rasta kiya hai...jab tak sarkar badh per koi asthai samadhan nahi nahi nikalegi tak tak yahan k log playan k liye wiwas hote rahenge......

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-10-2014) को "माँ का आँचल प्यार भरा" (चर्चा मंच-1780) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    छठ पूजा की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. Hi Neeraj, it is always a pleasure to read your blogs. One thing I need to mention here is that the "parasnath hill" is the tallest in the whole of Jharkhand. You could visit it.

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  9. सजीव रेल यात्रा और सजीव पृष्ठभूमि, यात्रा का आनन्द। सब कुछ मन भावन।

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  10. आपने जिस कहानी का जिक्र किया उसका शीर्षक "कर्मनाशा की हार" था और हाँ ये एक सुखान्त कहानी थी |
    आपकी यात्राओं के बारे में पढ़ते रहते हैं, बस टिप्पणी नहीं लिखते थोड़े आलस के कारण ;)

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  11. बहुत रोचक और विस्तृत यात्रा वृतांत...सम्पूर्ण यात्रा आँखों के सामने तैरने लगी...

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  12. बहुत अच्छा लेख .... इस लाइन में शायद संशोधन कि आवश्यकता है, देख लीजियेगा ....

    "तो इस प्रकार गुरपा झारखण्ड का पहला स्टेशन बन गया। मैं गुरपा में नीचे प्लेटफार्म पर उतरा और पहली बार झारखण्ड की धरती को देखने के लिये ईश्वर को धन्यवाद दिया। "

    यहाँ गुरपा कि जगह शायद दिलवा आना चाहिए .....

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    1. धन्यवाद Student, गलती को ठीक कर लिया है।

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  13. bahut achcha safar shuru hua hai --jaldi hi sunder fotu dekhne ko milege

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  14. Nice station photos from Grand Chord Route. Kindly paste SICY Station Board Picture over here: http://indiarailinfo.com/station/blog/shaheed-ishwar-chowdhary-halt-sicy/7583 ... thanks :-D

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  15. बहुत रोचक और मार्मिक पोस्ट। रेल यात्रा तो जानकारी वाली है ही साथ ही साथ यूपी बिहार की दुर्दशा का बहुत ही संवेदनशील ढंग से वर्णन भी कर दिये ।

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  16. कर्मनाशा की बाढ़ नही, कर्मनाशा की हार...
    शिवप्रसाद सिँह

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब