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अरकू-बस्तर यात्रा- दिल्ली से रायपुर

14 जुलाई 2014
वैसे तो जब भी मुझे निजामुद्दीन जाना होता है तो मैं अपने यहां से एक घण्टे पहले निकलता हूं। लेकिन आज देर हो गई। फिर भी एक जानकार के लिये पौन घण्टे में शास्त्री पार्क से निजामुद्दीन पहुंचना कोई मुश्किल नहीं है। भला हो राष्ट्रमण्डल खेलों का कि कश्मीरी गेट से इन्द्रप्रस्थ तक यमुना के किनारे किनारे नई सडक बन गई अन्यथा राजघाट की लालबत्ती पर ही बीस-पच्चीस मिनट लग जाते। अब कश्मीरी गेट से काले खां तक कोई भी लालबत्ती नहीं है। बस एक बार कश्मीरी गेट से चलती है और सीधे काले खां जाकर ही रुकती है। ट्रेन चलने से दस मिनट पहले मैं निजामुद्दीन पहुंच चुका था।
मेरी बर्थ कन्फर्म नहीं हुई थी लेकिन आरएसी मिल गई थी। यानी एक ही बर्थ पर दो आदमी बैठेंगे। जब टिकट बुक किया था तो वेटिंग थी। वेटिंग टिकट लेना सट्टा खेलने के बराबर होता है। जीत गये तो जीत गये और हार गये तो हार गये। इस तरह आरएसी सीट मेरे लिये जीत के ही बराबर थी। टीटीई ईमानदार निकला तो क्या पता कि मथुरा-आगरा तक पक्की बर्थ भी मिल जाये।

बर्थ नम्बर 47 पर मेरे अलावा जो सज्जन थे, वे भिलाई स्टील प्लांट में काम करते थे और दुर्ग जा रहे थे। उन्होंने बताया कि बराबर वाली आरएसी सीट यानी 39 नम्बर पर उनके कोई मित्र मथुरा से चढेंगे। वे दोनों साथ यात्रा करना पसन्द करेंगे तो मैंने अदला-बदली कर ली और मेरी नई सीट 39 हो गई। यह भी चूंकि आरएसी ही थी, तो अब देखना यह था कि इस बर्थ का दूसरा मालिक कहां से चढेगा।
साइड लोअर बर्थ का जहां एक नुकसान है कि इस पर दो लोगों को एक साथ सोना पडता है, वहीं एक फायदा भी है। दिन में यात्रा करने के लिये इससे बेहतर कोई और जगह नहीं है। गाडी के चलने की दिशा में पैर फैलाकर, लेटकर या पीछे कमर लगाकर खिडकी पर हाथ टिकाकर यात्रा करने में जो आनन्द आता है, वो गद्दी पर बैठते समय अकबर को भी नहीं आता होगा। हालांकि इस सीट पर अवांछित यात्री भी खूब बैठते हैं लेकिन यह कोई बिहारी गाडी नहीं थी। आगरा तक इस पर मैं ही रहा।
आगरा में एक दुबले-पतले से सज्जन आ गये- उठिये, यह मेरी सीट है। मैंने कहा कि केवल आपकी नहीं है, आधी मेरी भी है। बैठ जाओ। उन्हें रायपुर जाना था और जोधपुर पुष्कर की तीर्थयात्रा करके आ रहे थे। पुष्कर की तीर्थयात्रा तो समझ में आती है लेकिन जोधपुर की तीर्थयात्रा? जब मैंने पूछा तो जवाब मिला- आप समझ ही गये होंगे, अगर नहीं समझे तो समझ जाओ। जी हां, उन्होंने यही जवाब दिया। मैं समझ चुका था। भगवान भले ही जेल में हो, लेकिन भक्त तो भक्त है। आसाराम ने ठीक थोडे ही किया? ठीक किया होता तो भक्त सीना चौडा करके बताते, इशारे से बात न करते।
धौलपुर से निकलते ही चम्बल के बीहड शुरू हो गये। मुझे ये बीहड हमेशा ही बहुत अच्छे लगते हैं। कभी ये कुख्यात डकैतों के लिये सुरक्षित स्थान होते थे। चन्द्रकान्ता सन्तति पुस्तक में इन बीहडों का कोई जिक्र नहीं है। लगता है खत्री साहब यहां नहीं आये थे। आये होते तो निश्चित रूप से यहां भी कोई तिलिस्म बना देते। वैसे भी यह जगह प्राकृतिक तिलिस्म ही है।
भूख लगने लगी थी और मुझे इन्तजार था ग्वालियर का। प्रशान्त साहब यहां खाना लेकर आने वाले हैं। पहले ही इस बारे में बात हो चुकी है। हम पहले कभी नहीं मिले थे, बातचीत भी नहीं हुई थी कभी। जब उन्हें पता चला कि मैं दोपहर को ग्वालियर से निकलूंगा, तो लंच की बात तय हो गई। यहां गाडी का ज्यादा लम्बा चौडा ठहराव नहीं है। इन दो मिनटों में जितनी बातें हो सकती थीं, हुईं। ग्वालियर घूमने का वादा करके हम विदा हो गये।
खाने में इतना सामान था कि डिनर भी इसी से हो गया। सबसे अच्छी और सबसे गन्दी बात कि खाने में एक दशहरी भी था। दशहरी आम मेरा पसन्दीदा फल है। घर पर दो-दो ढाई-ढाई किलो दशहरी मैं बैठे बैठे खा जाता हूं। लेकिन सार्वजनिक स्थान पर बिल्कुल नहीं। आम खाने का जितना मजा इसका गूदा खाने में है, उससे भी ज्यादा गुठली चूसने में। और गुठली चूसते चूसते आपकी उंगलियां भी सन जाती हैं व मुंह भी।
ऊपर वाली यानी 40 नम्बर की बर्थ जिसकी थी, उसके साथियों को कहीं दूर सीट मिली थी। इसलिये वे अपने साथियों के पास चले गये थे। रात को जब सोना होगा, तब वे आयेंगे। इसका फायदा मुझे मिला। खाना खाते ही मैं ऊपर जाकर सो गया। झांसी, बीना और भोपाल कब निकल गये, पता ही नहीं चला। आंख खुली बुदनी पहुंचकर। यानी अब नर्मदा पार करेंगे, फिर होशंगाबाद, पोवारखेडा व इटारसी। बुदनी से इटारसी के बीच बचा हुआ खाना खा लिया। ट्रेन रुकते ही प्लेटफार्म पर टहलने लगा। गाडी यहां प्लेटफार्म तीन पर आई थी। चार पर पहले से ही जबलपुर-नई दिल्ली सुपर एक्सप्रेस खडी थी। कुछ देर बाद एक पर बंगलुरू से नई दिल्ली जाने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस आ गई। इसके पीछे पीछे ही लोकमान्य तिलक से गोरखपुर जाने वाली गोदान एक्सप्रेस प्लेटफार्म दो पर आ खडी हुई। चूंकि मनमाड से इटारसी तक कर्नाटक व गोदान दोनों का रूट एक ही होता है, तो मेरे विचार से कर्नाटक बिना आउटर पर रुके इटारसी स्टेशन पर प्रवेश कर गई होगी जबकि गोदान को पल भर के लिये रुकना पडा होगा। इसके बाद जबलपुर-नई दिल्ली को रवाना कर दिया व हमारी समता को भी। जब समता नागपुर की तरफ मुडने लगी तो मुम्बई की तरफ से एक ट्रेन इटारसी की तरफ जाती दिखी। निश्चित ही वह प्लेटफार्म तीन पर जायेगी।
मेरा यह सब लिखने का मतलब इतना ही है कि इटारसी जंक्शन यात्री व मालगाडियों के लिये अति व्यस्त स्टेशन है। यहां की कार्यप्रणाली देखकर मुझे इलाहाबाद डिवीजन की कार्यप्रणाली याद आ जाती है। वहां कानपुर में पनकी से ही आउटर शुरू हो जाता है और इलाहाबाद में मनोहरगंज व छिवकी से। जब तक गाडी आउटरों पर कम से कम पांच पांच दफे नहीं रुक जाती, तब तक उसे स्टेशन में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। सीखो, इलाहाबाद डिवीजन वालों, कुछ सीखो इनसे।
इटारसी के बाद आसाराम-भक्त अपने दूसरे साथियों के पास चले गये। वे सभी इसी डिब्बे में थे। उसने उनके पास नीचे चादर बिछा ली और सो गया। इस तरह मुझे पूरी बर्थ सोने को मिल गई।
तीन बजे के आसपास ट्रेन नागपुर पहुंची। एक घण्टे की देरी से चल रही थी। नागपुर से निकली तो एक महिला का रोना-धोना सुनकर आंख खुली। वह मेरे वाले कूपे में ही थी। नागपुर में किसी ने उसकी अटैची उडा दी थी। उसके साथ उसकी अठारह-बीस साल की लडकी भी थी। लडकी बिल्कुल गुमसुम बैठी थी। मां ने विलाप मचा रखा था- हाय, मेरी लाल अटैची। भला ऐसे में किसकी आंख न खुलती। कभी अपनी छाती पीटती, कभी अपना सिर पटकती। वैसे थी बिल्कुल होश में। बस दिखावा कर रही थी, ड्रामा कर रही थी। सहयात्रियों से पूछती कि आपने किसी को मेरी लाल अटैची ले जाते देखा है क्या।
मुझसे कहने लगी कि तुम कल पूरे दिन भर सोते रहे, तुम्हें रात को कैसे नींद आ गई? तुम्हें सोना ही नहीं चाहिये था। फिर कहने लगी कि नहीं, तुमने चोर को जरूर देखा होगा। कोई अगर दिन में सोये तो उसे रात को नींद कैसे आ सकती है? तुम्हें नींद नहीं आई थी। क्या तुम्हें पता है कि नागपुर कब आया था? हालांकि ट्रेन रुकते ही कितनी भी गहरी नींद हो, मुझे सोते-सोते भी पता चल जाता है कि ट्रेन फलां जगह रुकी है। नागपुर का भी पता था लेकिन मैं क्यों कहने लगा कि हां, मुझे पता है? मैंने कह दिया कि नहीं, मुझे पता ही नहीं कि नागपुर कब गया। तभी बेचारे एक बुजुर्ग ने भावावेश में कह दिया कि नागपुर में ट्रेन काफी देर तक खडी रही थी और मैं पेशाब करने भी गया था। बस, बेचारे की शामत आ गई। दूसरे यात्री साथ न देते तो वह बुजुर्ग चोर सिद्ध हो चुके थे।
चेन खींचने को उद्यत थी वह। लेकिन यात्रियों ने समझाया कि आपको रायपुर उतरना है, वहां रिपोर्ट लिखवा देना। मिलना होगा, मिल जायेगा; नहीं मिलना होगा तो आप वापस नागपुर भी चली जाओ, नहीं मिलेगा। रायपुर तक उसका विलाप जारी रहा। सुबह सवेरे की शानदार नींद का सत्यानाश हो गया। हाय! मेरी लाल अटैची। उसमें बिटिया के साठ-सत्तर हजार के कपडे थे, हम फंक्शन में जा रहे थे। अब हम वहां जाकर क्या मुंह दिखायेंगे? वास्तव में जब से उसने मुझ पर व दूसरों पर इल्जाम लगाया तो मेरी व बाकियों की हमदर्दी खत्म हो चुकी थी।
संयोग से या दुर्योग से उसी कूपे से अगर किसी को नागपुर ही जाना होता तो चोर वही बनता। वह उसके ही खिलाफ रिपोर्ट लिखवाती और रिजर्वेशन रिकार्ड से आसानी से उसका फोन नम्बर और पता आसानी से पता चल जाता।
एक घण्टे की ही देरी से रायपुर पहुंचे। यहां बारिश हो रही थी। बारिश होना मेरे लिये अच्छा भी था क्योंकि मुझे कुछ दिन बाद ही चित्रकोट जलप्रपात देखना था। प्रपातों को देखने का असली आनन्द बारिश में ही है। जितना ज्यादा पानी होगा, उतना ही ज्यादा आनन्द आयेगा।
रायपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर कसडोल है जहां सुनील पाण्डेय जी रहते हैं। अगले एक सप्ताह तक उन्हें ही मेरे साथ रहना था। वे आज सुबह सवेरे ही कसडोल से चले थे, बारिश की वजह से लेट होते चले गये। इसलिये उन्होंने मेरे ठहरने का इन्तजाम अपने एक जानकार के यहां करा दिया। जानकार दीनदयाल उपाध्याय नगर के गोल चक्कर पर मुझे लेने आये। चलो, चाय पीयेंगे- कहकर एक दुकान पर ले गये। मैं समझ गया कि महाराज कुंवारे हैं। और जब घर में प्रवेश किया तो लगा कि अपने ही ठिकाने पर आ गया हूं। चारों तरफ बिखरे कपडे, जमीन पर बिछा गद्दा, बेतरतीब रसोई, बिखरे अखबार और बाथरूम में मकडी के जाले। किसी घर में यह सब दिखे तो समझो कि वह कुंवारों की ऐशगाह है।
साढे दस बजे सुनील जी भी आ गये। बारिश अभी भी हो रही थी। उनका इरादा मुझे आज रायपुर घुमाने का था लेकिन बारिश ने सब पानी फेर दिया। बारिश से उन्हें एक रोचक किस्सा याद आया- कई साल पहले कसडोल से एक आदमी अपने तीन बच्चों को लेकर खाने-कमाने के लिये मजदूरी करने निकला और लद्दाख पहुंच गया। उसी दौरान लद्दाख में बाढ आ गई व भयंकर जान-माल का नुकसान हुआ। उसके तीनों बच्चे भी मारे गये। मुआवजे में उसे तीन लाख रुपये मिले। वापस लौटकर उसने ठाठ की जिन्दगी जीनी शुरू कर दी। उसके बाद वह हर साल अपने दो-दो तीन-तीन बच्चों को लेकर लद्दाख जाता है और कई अन्यों को भी वहां का रास्ता बता दिया है। इस उम्मीद में कि जल-प्रलय लद्दाख में फिर कभी आयेगी।
छत्तीसगढ आदिवासी प्रधान राज्य है। यहां आदिवासियों को स्वयं भी नहीं पता होता कि उनके कितने बच्चे हैं। सुनील जी ने बस्तर के आदिवासियों के बीच एक सर्वे में भाग लिया था, इसलिये आदिवासियों के बारे में काफी जानकारी है। बताने लगे कि सुकमा की तरफ एक बार जब जंगलों में आदिवासी गांवों में सर्वे कर रहे थे, तो नक्सलियों ने पकड लिया और आंखों पर पट्टी बांधकर बंधक बनाकर पूरी टीम को कहीं ले गये। बातचीत करने पर जब उन्हें पता चला कि ये बेचारे स्वयंसेवक हैं, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, तो उन्हें ससम्मान वापस छोड भी गये।
हमारी आगे की योजना बनने लगी। सुनील जी ने योजना समझाई कि हम आज रात विशाखापट्टनम की ट्रेन पकडेंगे, सुबह तक पहुंच जायेंगे। कल पूरे दिन विशाखापट्टनम घूमेंगे, परसों ट्रेन से अरकू जायेंगे। अगले दिन अरकू घूमेंगे। फिर ट्रेन से जगदलपुर जायेंगे और चित्रकोट व तीरथगढ जलप्रपात देखकर बस से रायपुर लौट जायेंगे। एक दिन कसडोल में रुकना पडेगा। मैंने इसमें फेरबदल करने को कहा क्योंकि मुझे केके लाइन का पूरा रूट देखना था। केके लाइन अर्थात कोत्तवलसा-किरन्दुल लाइन। उनकी योजना के अनुसार मुझे कोत्तवलसा से जगदलपुर तक का मार्ग ही देखने को मिल रहा है। जगदलपुर से किरन्दुल तक का मार्ग रह जायेगा। उसके लिये नहीं तो फिर दोबारा इधर आना पडेगा। मैं इसे इसी यात्रा में पूरा देखना चाहता था। आखिरकार काफी माथापच्ची करके कार्यक्रम में फेरबदल करना पडा।
वरिष्ठ ब्लॉगर बीएस पाबला जी को जब पता चला कि मैं पूरे दिन से रायपुर में हूं और न मैं कहीं गया और न ही उनसे मिला, तो वे नाराज हुए। उधर अभनपुर के रहने वाले ललित शर्मा भी नाराज थे। उनकी नाराजगी जायज है।
रात पौने नौ बजे कोरबा-विशाखापट्टनम एक्सप्रेस रायपुर से रवाना होती है। हमारा इसी में आरक्षण था। ट्रेन चलने से करीब आधा घण्टा पहले ही हम स्टेशन पहुंच गये थे। यहां प्लेटफार्म नम्बर तीन पर दुर्ग-विशाखापट्टनम पैसेंजर (58530) खडी थी। यह ट्रेन कल दोपहर बारह बजे तक विशाखापट्टनम पहुंचेगी और उसके बाद यही डिब्बे 18519 बनकर लोकमान्य तिलक जायेंगे। इसमें एक डिब्बा मध्य रेलवे का था और बाकी सभी पूर्वतट रेलवे के। हालांकि यह ट्रेन पूर्वतट रेलवे की है। इसके बाद प्लेटफार्म एक पर बिलासपुर-भगत की कोठी स्पेशल आ गई। इसमें सभी डिब्बे राजधानी के लुक वाले थे। शयनयान भी और वातानुकूलित भी। प्लेटफार्म छह पर लोकमान्य-शालीमार एक्सप्रेस (18029) आई। और फिर सबसे आखिर में पच्चीस मिनट की देरी से हमारी कोरबा-विशाखापट्टनम एक्सप्रेस रात आठ बजकर पचास मिनट पर प्लेटफार्म एक पर आ गई। इसमें विशाखापट्टनम का WDM 3A इंजन लगा था। नौ बजकर बीस मिनट पर गाडी यहां से रवाना हो गई।


अगला भाग: विशाखापट्टनम- सिम्हाचलम और ऋषिकोण्डा बीच

1. अरकू-बस्तर यात्रा- दिल्ली से रायपुर




Comments

  1. Kitni bhi gahari nind ho , muje sote sote bhi pata chal jata he train kaha ruki he ????????????? ,@@@@@@@ ha ha haaaaaaaaaaaaaa

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  2. Kya khub is post ke 100 Me se 100 Net ke hamare paisa vasul .

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  3. बहुत उम्दा जानकारी के साथ सुन्दर यात्रा वृतांत ..

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  4. जाटराम व नींद का गहरा संबंध है।

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  5. what i say to about you i think you are google,you knows every thing.

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  6. i am waiting for your hilly travell. but this is really very nice dear

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    1. वो भी शीघ्र ही प्रकाशित होगा।

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  7. Wah kya bat hai.maja aa gya.sabhi point per bakhubi likhe.agle part me photo jarur lagave.thanks.

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    1. जी सर, आगे बहुत फोटो मिलेंगे।

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  8. aadivasi nahin jat ram, vanvasi. Aadivasi to ham sab hi hain.

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    1. हां, तरुण भाई। आप ठीक कह रहे हो लेकिन सामान्य बोलचाल में वनवासी को ही आदिवासी बोला जाता है। मैंने भी बोल दिया।

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  9. waha waha kaya baat hai...sir ji,

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  10. उस महिला का बाद में क्या हुअा

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    1. पता नहीं। रायपुर उतरकर मैं फटाफट स्टेशन से बाहर निकल गया। वो पता नहीं कहां गई।

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  11. नीरज़ जी में आपके याञा विवरण का प्रशंसक हूँ पेशे से history का प्रोफेसर हूँ मेरे student को आपके याञा blog पढने के लिए प्रोत्साहीत करता हूँ महाराष्ट्र के पुना में रहता हूँ आपकी घुमक्कडी express पुना में आयेगी तो आपके साथ घुमक्कडी करना चाहूॅगा

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    1. धन्यवाद भवारी साहब कि आप अपने छात्रों को भी मेरे बारे में बताते हैं। कभी पुणे आऊंगा तो आपके साथ घूमूंगा।

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  12. आनन्द दायक और जानकारीयुक्त । साधुवाद नीरज जी

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  13. नीरज भाई आपका यात्रा वर्तान्त गज़ब का रोचक होता है ,पता है क्यों ? क्योकि आप यात्रा वर्तान्त के साथ साथ आसपास के वातावरण एवं सह यात्रीओ के व्यवहार का भी रोचक वर्णन करते है। गज़ब पोस्ट बस फोटो की कमी।

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    1. जी, बिल्कुल। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  14. यो तो ठीक रह्या अक तेरे सर ना होई वा लुगाई l बस आपकी नींद जाट राम म्हारे फोटुआ नै खा गी l कम तै कम एक दो फोटू तो लगाने थे l

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    1. भाई, थोडा सबर करा करैं। फोटूआ मैं कुछ ना धरा। जिब फोटूआ का टैम आवैगा, फोटू बी मिलैंगे।

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  15. सुन्दर और रोचक वर्णन "कुंवारों की ऐशगाह" का बखूबी वर्णन किया। अगले भाग का बेसब्री से इन्तेजार है....

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    1. जी विशाल जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  16. Neeraj bhai......
    Majedar bivran rail yatra ka.....us mahila ko nahi pata tha ki nind aur neeraj ka gehra sambandh hai...
    Bhai jo kuch v ho maja aa gaya.....

    Ranjit......

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  17. नीरज भाई आपके द्वारा फेसबुक पर जो [ शिंगो-ला पर...] की पिक्चर अपलोड की गई हें उसकी यात्रा का वर्णन कंहा मिलेगा क्रपया बताये.

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    1. सक्सेना जी, अभी तक वह वृत्तान्त प्रकाशित नहीं हुआ है। अभी अरकू-बस्तर यात्रा प्रकाशित होनी आरम्भ हुई है, इसके बाद ‘शिंगो-ला’ यात्रा प्रकाशित होगी। 19 दिसम्बर से उसका प्रकाशन आरम्भ होगा।

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  18. आप का धन्यवाद , अगर मेरठ आना हो तो जरूर मिलना शहर में कोतवाली के पास पुराने शहर का रहने वाला हू और थोढ़ा घुमने का शोक भी रखता
    हू . हो सकता हें आपके साथ भी कही घुमने जाने का मौका मिल ही जाये.

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  19. नीराज भाई बढिया रेल यात्रा वो महिला बहुत विश्वास से कहा रही थी जो पुरे दिन सोये वो रात मे नही सो सकता मगर वो महिला नहीं जानती की जाट है तो कुछ भी हो सकता है !

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  20. ललित और पाबला जी को नाराज करना बहुत बड़ी भूल है नीरज --उनसे तो मिलना ही था

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  21. This comment has been removed by the author.

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  22. "यहां आदिवासियों को स्वयं भी नहीं पता होता कि उनके कितने बच्चे हैं। " दोस्त आप इस लाइन को हटा दे ,क्युकी ये पुरे आदिवासी समाज को कटघरे में खड़े करता है ,और जो की वास्तविक है नही। किसी सामाजिक संघटन ,राजनीती से जुड़े लोगो ने पढ़ लिया तो बाद में आपके लिए परेशानी खड़े कर देगी। वैसे आपका पूरा लेख काफी रोचक है। शायद किसी व्यक्ती ने मज़ाक के मूड में ऐसी बात आपसे कहि होगी।

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    1. शर्मा जी, ये मेरे विचार नहीं हैं। जैसा मैंने एक स्थानीय छत्तीसगढी से सुना, वैसा ही लिख दिया।
      आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब