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Showing posts from 2016

2016 की यात्राओं का लेखा-जोखा

यह साल बड़ा ही उलट-पुलट भरा रहा। जहाँ एवरेस्ट बेस कैंप जैसी बड़ी और यादगार यात्रा हुई, वहीं मणिमहेश परिक्रमा जैसी हिला देने वाली यात्रा भी हुई। इस वर्ष बाकी वर्षों के मुकाबले ऑफिस से सबसे ज्यादा छुट्टियाँ लीं और संख्यात्मक दृष्टि से सबसे कम यात्राएँ हुईं। केवल नौ बार बाहर जाना हुआ, जिनमें छह बड़ी यात्राएँ थीं और तीन छोटी। बड़ी यात्राएँ मलतब एक सप्ताह या उससे ज्यादा। इस बार न छुटपुट यात्राएँ हुईं और न ही उतनी ट्रेनयात्राएँ। जबकि दो-दिनी, तीन-दिनी छोटी यात्राएँ भी कई बार बड़ी यात्रा से ज्यादा अच्छे फल प्रदान कर जाती हैं।  ज्यादा न लिखते हुए मुख्य विषय पर आते हैं:

चोपता से दिल्ली बाइक यात्रा

3 नवंबर 2016 सुबह नौ बजे जब मैं कमरे से बाहर निकला और बाइक के पास गया तो होश उड़ गये। इसकी और अन्य बाइकों की सीटों पर पाला जमा हुआ था। मतलब बर्फ़ की एक परत जमी थी। हाथ से नहीं हटी, नाखून से भी नहीं खुरची जा सकी। बमुश्किल लकड़ी व टूटे हुए प्लास्टिक के एक टुकड़े से इसे हटाया। पास में ही कुछ बंगाली ऊपर तुंगनाथ जाने की तैयारी कर रहे थे। आठ-दस साल का एक लड़का मेरे पास आया - ‘क्या यह बर्फ़ है?’ मैंने कहा - ‘हाँ।’ सुनते ही उसने बाकी बच्चों को बुला लिया - इधर आओ सभी, बर्फ़ देखो। मुझे इसी बात का डर था। मैं शाम के समय ही चोपता आना चाहता था और शाम के समय ही यहाँ से जाना चाहता था। कल तुंगनाथ से लौटने में विलंब हो गया था, तो यहीं रुकना पड़ा। अब रास्ते में ब्लैक आइस मिलेगी। मुझे बड़ा डर लगता है ब्लैक आइस से।

तुंगनाथ और चंद्रशिला की यात्रा

2 नवंबर, 2016 पता नहीं क्या बात थी कि हमें चोपता से तुंगनाथ जाने में बहुत दिक्कत हो रही थी। चलने में मन भी नहीं लग रहा था। हालाँकि चोपता से तुंगनाथ साढ़े तीन किलोमीटर दूर ही है, लेकिन हमें तीन घंटे लग गये। तेज धूप निकली थी, लेकिन उत्तर के बर्फ़ीले पहाड़ बादलों के पीछे छुपे थे। धूप और हाई एल्टीट्यूड़ के कारण बिलकुल भी मन नहीं था चलने का। यही हाल निशा का था। थोड़ा-सा चलते और बैठ जाते और दस-पंद्रह मिनट से पहले नहीं उठते। दूसरे यात्रियों को देखा, तो उनकी भी हालत हमसे अच्छी नहीं थी। तुंगनाथ के पास एक कृषि शोध संस्थान है। मैं सोचने लगा कि जो भी कृषि-वैज्ञानिक इसमें रहते होंगे, वे खुश रहते होंगे या इसे काला पानी की सज़ा मानते होंगे। हालाँकि सरकारी होने के कारण उन्हें हर तरह की सुविधाएँ हासिल होंगी, पैसे भी अच्छे मिलते होंगे, इनसेंटिव भी ठीक मिलता होगा, लेकिन फिर भी उन्हें अकेलापन तो खलता ही होगा। 

देवरिया ताल

1 नवंबर, 2016 सुबह पौड़ी से बिना कुछ खाये-पीये चले थे, अब भूख लगने लगी थी। लेकिन खाना खायेंगे तो नींद आयेगी और मैं इस अवस्था में बाइक नहीं चलाना चाहता था। पीछे बैठी निशा को बड़ी आसानी से नींद आ जाती है और वह झूमने लगती है। इसलिये उसे भी भरपेट भोजन नहीं करने दूँगा। इसलिये हमारी इच्छा थी थोड़ी-बहुत पकौड़ियाँ चाय के साथ खाना। रुद्रप्रयाग में हमारी पकौड़ी खाने की इच्छा पूरी हो जायेगी। लेकिन रुद्रप्रयाग से आठ किलोमीटर पहले नारकोटी में कई होटल-ढाबे खुले दिखे। चहल-पहल भी थी, तो बाइक अपने आप ही रुक गयी। स्वचालित-से चलते हुए हम सबसे ज्यादा भीड़ वाले एक होटल में घुस गये और 60 रुपये थाली के हिसाब से भरपेट रोटी-सब्जी खाकर बाहर निकले। यहाँ असल में लंबी दूरी के जीप वाले रुकते हैं। जीप के ड्राइवरों के लिये अलग कमरा बना था और उनके लिये पनीर-वनीर की सब्जियाँ ले जायी जा रही थीं। बाकी अन्य यात्रियों के लिये आलू-गोभी की सब्जी, दाल-राजमा, कढी और चावल थे। हाँ, खीर भी थी। खीर एक कटोरी ही थी, बाकी कितना भी खाओ, सब 60 रुपये में। 

खिर्सू के नज़ारे

1 नवंबर 2016 सुबह सात बजे जब उठे तो बाहर हल्की धुंध थी, अन्यथा पौड़ी से चौखंबा समेत कई चोटियाँ बहुत नज़दीक दिखायी देती हैं। फिर भी चौखंबा दिख रही थी। आज हमें चोपता तक जाना था। दूरी ज्यादा नहीं थी, इसलिये आराम-आराम से चलेंगे। पौड़ी से वापस बुवाखाल आये। यहाँ से एक रास्ता तो वही है, जिससे कल हम आये थे - कोटद्वार वाला। एक अन्य रास्ता भी पता नहीं कहाँ जाता है। हम इसी ‘पता नहीं कहाँ’ वाले पर चल दिये। थोड़ा आगे जाकर इसमें से खिर्सू वाला रास्ता अलग हो जायेगा। रास्ता धार के साथ-साथ है, इसलिये दाहिने भी और बायें भी नज़ारों की कोई कमी नहीं। दाहिने जहाँ सतपुली की घाटी दिखती है, वही बायें चौखंबा। कुछ ही आगे खिर्सू वाला रास्ता अलग हो गया। अब जंगल शुरू हो गया और इस मौसम में मुझे जंगल में एक चीज से बहुत डर लगता है - ब्लैक आइस से। यह ऐसे कोनों में आसानी से बनती है, जहाँ धूप अक्सर नहीं पहुँचती। गनीमत थी कि ब्लैक आइस नहीं मिली। वैसे मुझे काफ़ी हद तक ‘ब्लैक-आइस-फोबिया’ भी है। रास्ते में एक गाँव पड़ा - चोपट्टा। हमने आज की यात्रा का नाम रखा - चोपट्टा से चोपता तक।

बाइक यात्रा: मेरठ-लैंसडौन-पौड़ी

कल देश-दुनिया में दीपावली थी, लेकिन हमारा गाँव थोड़ा ‘एड़वांस’ चलता है। परसों ही दीपावली मना ली और कल गोवर्धन पूजा। हर साल ऐसा ही होता है। एक दिन पहले मना लेते हैं। गोवर्धन पूजा के बाद एक वाक्य अवश्य बोला जाता है - “हो ग्या दिवाली पाच्छा।” अर्थात दीपावली बीत गयी। मेरी चार दिन की छुट्टियाँ शेष थीं, तो मैंने इन्हें दीपावली के साथ ही ले लिया था। ‘दिवाली पाच्छा’ होने के बाद आज हमने सुबह ही बाइक उठायी और निकल पड़े। चोपता-तुंगनाथ जाने की मन में थी, तो घरवालों से केदारनाथ बोल दिया। वे तुंगनाथ को नहीं जानते। 4 नवंबर को वापस दिल्ली लौटेंगे। कल ही सारा सामान पैक कर लिया था। लेकिन गाँव में दिल्ली के मुकाबले ज्यादा ठंड़ होने के कारण अपनी पैकिंग पर पुनर्विचार करना पड़ा और कुछ और कपड़े शामिल करने पड़े। जिस वातावरण में बैठकर हम यात्रा की पैकिंग करते हैं, सारी योजनाएँ उसी वातावरण को ध्यान में रखकर बनायी जाती हैं। पता भी होगा, तब भी उस वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है। चोपता-तुंगनाथ में भयंकर ठंड़ मिलेगी, लेकिन कपड़े पैक करते समय मानसिकता दिल्ली के वातावरण की ही रही, इसलिये उतने कपड़े नहीं रखे। यहाँ गाँव में ठं

भोपाल-इंदौर-रतलाम पैसेंजर ट्रेन यात्रा

30 सितंबर 2016, भोपाल सुबह 06:40 बजे की ट्रेन थी। सुमित ने साढ़े चार बजे ही उठा दिया। उठाया, तब तो गुस्सा नहीं आया। लेकिन जब समय देखा, बड़ा गुस्सा आया। साढ़े पाँच का अलार्म लगा रखा था। सुमित को कहकर फिर से सो गया। पता नहीं साढ़े पाँच बजे पहले अलार्म बजा या पहले विमलेश जी फोन आया। उनका उद्देश्य मुझे जगाने का ही था। जैसे ही मैंने ‘हेलो’ कहा, उन्होंने ‘हाँ, ठीक है’ कहकर फोन काट दिया। स्टेशन आये, टिकट लिया और वेटिंग रूम में जा बैठे। इसी दौरान मैं नहा भी आया और धो भी आया। मेरे आने के बाद सुमित गया तो दो मिनट बाद ही बाहर निकला। यह देखकर कि यह ‘पुरुष प्रसाधन’ ही है, फिर से जा घुसा।

खंड़वा से बीड़ ट्रेन यात्रा

हमें खंड़वा से बीड़ जाना था। वैसे तो बीड़ नामक एक जिला महाराष्ट्र में भी है। महाराष्ट्र वाले बीड़ में अभी रेल नहीं पहुँची है, काम चल रहा है। लेकिन हमें महाराष्ट्र वाले बीड़ नहीं जाना था। नर्मदा पर जब इंदिरा सागर बाँध बना, तो हरसूद शहर और उसके आसपास की रेलवे लाइन को भी डूब क्षेत्र में आ जाना था। यह मुम्बई-इटारसी वाली रेलवे लाइन ही थी - ब्रॉड़ गेज डबल ट्रैक इलेक्ट्रिफाइड़। तो रेलवे लाइन का दोबारा एलाइनमेंट किया गया। बाँध के दक्षिण में कुछ ज्यादा चक्कर लगाकर - तलवड़िया से खिरकिया तक। नये मार्ग से ट्रेनें चलने लगीं और पुराने मार्ग का काफी हिस्सा बाँध में डूब गया। फिर भी तलवड़िया से बीड़ तक का पुराना मार्ग डूबने से बचा रह गया। बीड़ में एक पावर प्लांट भी है, जिसके कारण वहाँ नियमित रूप से मालगाड़ियाँ चलती हैं। खंड़वा से बीड़ तक दिन में तीन जोड़ी पैसेंजर ट्रेनें भी चलती हैं - रविवार छोड़कर। बीड़ से छह-सात किलोमीटर आगे रेल की पटरियाँ पानी में डूब जाती हैं। सैटेलाइट से इन्हें डूबते हुए और फिर उस तरफ निकलते हुए स्पष्ट देखा जा सकता है।

मीटरगेज ट्रेन यात्रा: महू-खंड़वा

29 सितंबर 2016 सुबह साढ़े पाँच बजे इंदौर रेलवे स्टेशन पर मैं और सुमित बुलेट पर पहुँचे। बाइक पार्किंग में खड़ी की और सामने बस अड्ड़े पर जाकर महू वाली बस के कंडक्टर से पूछा, तो बताया कि सात बजे बस महू पहुँचेगी। क्या फायदा? तब तक तो हमारी ट्रेन छूट चुकी होगी। पुनः बाइक उठायी और धड़-धड़ करते हुए महू की ओर दौड़ लगा दी। खंड़वा जाने वाली मीटरगेज की ट्रेन सामने खड़ी थी - एकदम खाली। सुमित इसके सामने खड़ा होकर ‘सेल्फी’ लेने लगा, तो मैंने टोका - ज़ुरमाना भरना पड़ जायेगा। छह चालीस पर ट्रेन चली तो हम आदतानुसार सबसे पीछे वाले ‘पुरुष डिब्बे’ में जा चढ़े। अंदर ट्रेन में पन्नी में अख़बार में लिपटा कुछ टंगा था। ऐसा लगता था कि पराँठे हैं। हम बिना कुछ खाये आये थे, भूखे थे। सुमित ने कहा - नीरज, माल टंगा है कुछ। मैंने कहा - देख, गर्म है क्या? गर्म हों, तो निपटा देते हैं। हाथ लगाकर देखा - ठंड़े पड़े थे। छोड़ दिये।

पैसेंजर ट्रेन-यात्रा: गुना-उज्जैन-नागदा-इंदौर

27 सितंबर, 2016 स्थान: अनंत पेट गाड़ी एक घंटे से भी ज्यादा विलंब से चल रही थी। ग्वालियर में कुछ नहीं खा पाया। ऊपर लेटा रहा और जब तक पता चलता कि यह ग्वालियर है, तब तक देर हो चुकी थी। तेज भूख लगी थी। अब अच्छी-खासी चलती गाड़ी को अनंत पेट पर रोक दिया। दो ट्रेनें पास हुईं, तब इसे पास मिला। अनंत पेट... पता नहीं इनमें से भूखे कितने हैं? मुझे तो एक पेट का ही पता है। इससे अच्छा तो थोड़ा आगे डबरा में रोक देते। कम से कम खाने को कुछ तो मिल जाता। वैसे यह कितनी मजेदार बात है - अनंत पेट में भूखे रहे और ‘डबरे’ में भोजन मिल जाता। है ना? खैर, झाँसी में टूट पड़ना है खाने पर। इधर ट्रेन में भी कुछ नहीं। चौबीस घंटे चिल्लाते रहने वाले किसी वेंड़र की कोई आवाजाही नहीं। अच्छा है। ऐसी ही शांतिपूर्ण होनी चाहिये रेलयात्रा।

मणिमहेश ट्रैक पर क्या हुआ था?

यह एक दुखांत यात्रा रही और इसने मुझे इतना विचलित किया है कि मैं अपना सामाजिक दायरा समेटने के बारे में विचार करने लगा हूँ। कई बार मन में आता कि इस यात्रा के बारे में बिलकुल भी नहीं लिखूँगा, लेकिन फिर मन बदल जाता - अपने शुभचिंतकों और भावी यात्रियों के लिये अपने इस अनुभव को लिखना चाहिये। यात्रा का आरंभ हमेशा की तरह इस यात्रा का आरंभ भी फेसबुक से हुआ। मैं अपनी प्रत्येक यात्रा-योजना को फेसबुक पर अपडेट कर दिया करता था। इस यात्रा को भी फेसबुक इवेंट बनाकर 24 जुलाई को अपडेट कर दिया। इसमें हमें 4800 मीटर ऊँचा जोतनू दर्रा पार करना था। हिमालय में इतनी ऊँचाई के सभी दर्रे खतरनाक होते हैं, इसलिये इस दर्रे का अनुभव न होने के बावज़ूद भी मुझे अंदाज़ा था कि इसे पार करना आसान नहीं होगा। लेकिन चूँकि यह मणिमहेश परिक्रमा मार्ग पर स्थित था और आजकल मणिमहेश की सालाना यात्रा आरंभ हो चुकी थी, तो उम्मीद थी कि आते-जाते यात्री भी मिलेंगे और रास्ते में खाने-रुकने के लिये दुकानें भी। दुकान मिलने का पक्का भरोसा नहीं था, इसलिये अपने साथ टैंट और स्लीपिंग बैग भी ले जाने का निश्चय कर लिया। यही सब फेसबुक पर भी

नचिकेता ताल

18 फरवरी 2016 आज इस यात्रा का हमारा आख़िरी दिन था और रात होने तक हमें कम से कम हरिद्वार या ऋषिकेश पहुँच जाना था। आज के लिये हमारे सामने दो विकल्प थे - सेम मुखेम और नचिकेता ताल।  यदि हम सेम मुखेम जाते हैं तो उसी रास्ते वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन यदि नचिकेता ताल जाते हैं तो इस रास्ते से वापस नहीं लौटना है। मुझे ‘सरकुलर’ यात्राएँ पसंद हैं अर्थात जाना किसी और रास्ते से और वापस लौटना किसी और रास्ते से। दूसरी बात, सेम मुखेम एक चोटी पर स्थित एक मंदिर है, जबकि नचिकेता ताल एक झील है। मुझे झीलें देखना ज्यादा पसंद है। सबकुछ नचिकेता ताल के पक्ष में था, इसलिये सेम मुखेम जाना स्थगित करके नचिकेता ताल की ओर चल दिये। लंबगांव से उत्तरकाशी मार्ग पर चलना होता है। थोड़ा आगे चलकर इसी से बाएँ मुड़कर सेम मुखेम के लिये रास्ता चला जाता है। हम सीधे चलते रहे। जिस स्थान से रास्ता अलग होता है, वहाँ से सेम मुखेम 24 किलोमीटर दूर है।  उत्तराखंड के रास्तों की तो जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। ज्यादातर तो बहुत अच्छे बने हैं और ट्रैफिक है नहीं। जहाँ आप 2000 मीटर के आसपास पहुँचे, चीड़ का जंगल आरंभ हो जाता है। चीड़ के जंगल में बाइक चल

चंद्रबदनी मंदिर और लंबगांव की ओर

17 फरवरी 2016 ज्यादा विस्तार से नहीं लिखेंगे। एक तो यात्रा किये हुए अरसा हो गया है, अब वृत्तांत लिखने बैठा हूं तो वैसा नहीं लिखा जाता, जैसा ताजे वृत्तांत में लिखा जाता है। लिखने में तो मजा नहीं आता, पता नहीं आपको पढने में मजा आता है या नहीं। तो जामणीखाल से सुबह नौ बजे बाइक स्टार्ट कर दी और चंद्रबदनी की ओर मुड गये। चंद्रबदनी मैं पहले भी जा चुका हूं - शायद 2009 में। तब जामणीखाल तक हम बस से आये थे और यहां से करीब आठ-नौ किलोमीटर दूर चंद्रबदनी तक पैदल गये थे। पक्की अच्छी सडक बनी है। आज बीस मिनट लगे हमें चंद्रबदनी के आधार तक पहुंचने में। यहां सडक समाप्त हो जाती है और बाकी एक किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी होती है। यह दूरी भी तय हो गई। पक्का रास्ता बना है। लेकिन अच्छी चढाई है। चंद्रबदनी मंदिर की समुद्र तल से ऊंचाई करीब 2200 मीटर है। मंदिर के सामने पहुंचे तो वो नजारा दिखाई पडा, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। किन्नौर हिमालय से लेकर नंदादेवी तक की चोटियां स्पष्ट दिखाई दे रही थीं और चौखंबा इनके राजा की तरह अलग ही चमक रही थी। कुमाऊं में किसी ऊंचाई वाले स्थान से देखेंगे तो नंदादेवी और पंचचूली चोट

गढवाल में बाइक यात्रा

इसी साल फरवरी में हमारी योजना शिमला जाने की बनी। उम्मीद थी कि इन दिनों तक बर्फ पड जायेगी और हम छोटी ट्रेन में बर्फीले रास्तों का सफर तय करेंगे। साथ चलने वालों में नागटिब्बा यात्रा के साथी नरेंद्र, उसकी घरवाली पूनम और ग्वालियर से प्रशांत जी तैयार हुए। शिमला में रिटायरिंग रूम भी ऑनलाइन बुक कर लिये थे। एक दिन पहले प्रशांत जी ने आने में असमर्थता जता दी। उनके यहां एक देहांत हो गया था। लेकिन कमाल की बात यह रही कि 15 फरवरी की दोपहर 12:10 बजे कालका से चलने वाली छोटी ट्रेन का चार्ट 13 फरवरी को ही बन गया था। इस वजह से प्रशांत जी का आरक्षण भी रद्द नहीं हो सका। हाँ, शिमला में रिटायरिंग रूम अवश्य रद्द कर दिया था। मैं 15 की सुबह नाइट ड्यूटी करके आया। 07:40 बजे नई दिल्ली से शताब्दी में आरक्षण था। नरेंद्र और पूनम कल ही हमारे यहां आ गये थे। नहा-धोकर बिना नाश्ता किये जब घर से निकले तो 07:10 बज चुके थे। सुबह के समय मेट्रो भी देर-देर में आती है। जब नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन से बाहर निकले तो 07:40 हो चुके थे। कालका शताब्दी के लेट होने की संभावना तो थी ही नहीं। जब लंबी लाइन की सुरक्षा जांच के बाद पैदल-पार-पथ

खम्भात-आणंद-गोधरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा

15 मार्च 2016 जब आणंद के उस 100 रुपये वाले आलीशान कमरे में मैं गहरी नींद में सोया हुआ था तो विमलेश जी का फोन आया- उठ जाओ। चार बज गये। वैसे मैंने अलार्म भी लगा रखा था लेकिन अलार्म से अक्सर मेरी आंख नहीं खुला करती। विमलेश जी गजब इंसान हैं कि चार बजे उठ गये, केवल मुझे जगाने को। अगर मैं नींद में उनका फोन न उठाता, तो मुझे यकीन है कि स्टेशन स्टाफ आ जाता मुझे जगाने। 04:55 बजे खम्भात की ट्रेन थी। आणंद-खम्भात के बीच में सभी डेमू ट्रेनें ही चलती हैं, विद्युतीकृत मार्ग नहीं है। खम्भात के नाम पर ही खम्भात की खाडी नाम पडा। खम्भात के पास साबरमती नदी समुद्र में गिरती है। ब्रिटिश काल में इसे कैम्बे कहा जाता था, जिसकी वजह से खम्भात स्टेशन का कोड आज भी CBY है।

यात्रा पुस्तक चर्चा

पिछले दिनों कुछ यात्रा पुस्तकें पढने को मिलीं। इनके बारे में संक्षेप में लिख रहा हूं: 1. कर विजय हर शिखर (प्रथम संस्करण, 2016) लेखिका: प्रेमलता अग्रवाल प्रकाशक: प्रभात पेपरबैक्स ISBN: 978-93-5186-574-2 दार्जीलिंग में मारवाडी परिवार में जन्मीं प्रेमलता अग्रवाल का विवाह जमशेदपुर में हुआ। संयुक्त परिवार था और उन्हें पारिवारिक दायित्वों का कडाई से पालन करना होता था। कभी घुमक्कडी या पर्वतारोहण जैसी इच्छा मन में पनपी ही नहीं। समय का चक्र चलता रहा और दो बेटियां भी हो गईं। इसके आगे प्रेमलता जी लिखती हैं:

वडोदरा-कठाणा और भादरण-नडियाद रेल यात्रा

14 मार्च 2016, सोमवार गुजरात मेल सुबह पांच बजे वडोदरा पहुंच गई और मैं यहीं उतर गया। वैसे इस ट्रेन में मेरा आरक्षण आणंद तक था। आणंद तक आरक्षण कराने का मकसद इतना था ताकि वहां डोरमेट्री में बिस्तर बुक कर सकूं। ऑनलाइन बुकिंग कराते समय पीएनआर नम्बर की आवश्यकता जो पडती है। आज मुझे रात को आणंद रुकना है। सुबह पांच बजे वडोदरा पहुंच गया और विमलेश जी का फोन आ गया। मेरी इस आठ-दिनी यात्रा को वे भावनगर में होते हुए भी सोते और जगते लगातार देख रहे थे। सारा कार्यक्रम उन्हें मालूम था और वे मेरे परेशान होने से पहले ही सूचित कर देते थे कि अब मुझे क्या करना है। अब उन्होंने कहा कि अधिकारी विश्राम गृह में जाओ। वहां उन्होंने केयर-टेकर से पहले ही पता कर रखा था कि एक कमरा खाली है और उसे यह भी बता रखा था कि सवा चार बजे मेरी ट्रेन वडोदरा आ जायेगी। बेचारा केयर-टेकर सुबह चार बजे से ही जगा हुआ था। ट्रेन वडोदरा पौन घण्टा विलम्ब से पहुंची, केयर-टेकर मेरा इंतजार करते-करते सोता भी रहा और सोते-सोते इंतजार भी करता रहा। यह एक घण्टा उसके लिये बडा मुश्किल कटा होगा। नींद की चरम अवस्था होती है इस समय। लेकिन विमलेश जी की न

मुम्बई लोकल ट्रेन यात्रा

13 मार्च 2016 आज रविवार था। मुझे मुम्बई लोकल के अधिकतम स्टेशन बोर्डों के फोटो लेने थे। यह काम आसान तो नहीं है लेकिन रविवार को भीड अपेक्षाकृत कम होने के कारण सुविधा रहती है। सुबह चार बजे ही देहरादून एक्सप्रेस बान्द्रा टर्मिनस पहुंच गई। पहला फोटो बान्द्रा टर्मिनस के बोर्ड का ले लिया। यह स्टेशन मेन लाइन से थोडा हटकर है। कोई लोकल भी इस स्टेशन पर नहीं आती, ठीक लोकमान्य टर्मिनस की तरह। इस स्टेशन का फोटो लेने के बाद अब मेन लाइन का ही काम बच गया। नहा-धोकर एक किलोमीटर दूर मेन लाइन वाले बान्द्रा स्टेशन पहुंचा और विरार वाली लोकल पकड ली। साढे पांच बजे थे और अभी उजाला भी नहीं हुआ था। इसलिये डेढ घण्टा विरार में ही बैठे रहना पडा। सात बजे मोर्चा सम्भाल लिया और अन्धेरी तक जाने वाली एक धीमी लोकल पकड ली। मुम्बई में दो रेलवे जोन की लाइनें हैं- पश्चिम रेलवे और मध्य रेलवे। पश्चिम रेलवे की लाइन चर्चगेट से मुम्बई सेंट्रल होते हुए विरार तक जाती है। यही लाइन आगे सूरत, वडोदरा और अहमदाबाद भी जाती है। इसे वेस्टर्न लाइन भी कहते हैं। इसमें कोई ब्रांच लाइन नहीं है। समुद्र के साथ साथ है और कोई ब्रांच लाइन न होने के का

मियागाम करजन - डभोई - चांदोद - छोटा उदेपुर - वडोदरा

12 मार्च 2016 अगर मुझे चांदोद न जाना होता, तो मैं आराम से सात बजे के बाद उठता और 07:40 बजे डभोई जाने वाली ट्रेन पकडता। लेकिन चांदोद केवल एक ही ट्रेन जाती है और यह ट्रेन मियागाम से सुबह 06:20 बजे चल देती है। मुझे साढे पांच बजे उठना पडा। रनिंग रूम में बराबर वाले बेड पर इसी ट्रेन का एक ड्राइवर सो रहा था। दूसरा ड्राइवर और गार्ड दूसरे कमरे में थे। मियागाम के रनिंग रूम में केवल नैरोगेज के गार्ड-ड्राइवर ही विश्राम करते हैं। मेन लाइन के गार्ड-ड्राइवरों के लिये यहां का रनिंग रूम किसी काम का नहीं। या तो मेन लाइन की ट्रेनें यहां रुकती नहीं, और रुकती भी हैं तो एक-दो मिनट के लिये ही। 1855 में यानी भारत में पहली यात्री गाडी चलने के दो साल बाद बी.बी.एण्ड सी.आई. यानी बॉम्बे, बरोडा और सेण्ट्रल इण्डिया नामक रेलवे कम्पनी का गठन हुआ। इसने भरूच के दक्षिण में अंकलेश्वर से सूरत तक 1860 तक रेलवे लाइन बना दी। उधर 1861 में बरोडा स्टेशन बना और इधर 1862 में देश की और एशिया की भी पहली नैरोगेज लाइन मियागाम करजन से डभोई के बीच शुरू हो गई। यानी पहली ट्रेन चलने के 9 साल के अन्दर। इसका सारा श्रेय महाराजा बरोडा को जात

मियागाम करजन से मोटी कोरल और मालसर

11 मार्च 2016 आज तो किसी भी तरह की जल्दबाजी करने की आवश्यकता ही नहीं थी। वडोदरा आराम से उठा और नौ बजे मियागाम करजन जाने के लिये गुजरात एक्सप्रेस पकड ली। अहमदाबाद-मुम्बई मार्ग गुजरात और पश्चिम रेलवे का एक बेहद महत्वपूर्ण मार्ग है। इस पर अहमदाबाद और मुम्बई के बीच में पैसेंजर ट्रेनों के साथ साथ शताब्दी, डबल डेकर और दुरन्तो जैसी ट्रेनें भी चलती हैं और सभी भरकर चलती हैं। ट्रेनें भी खूब हैं और यात्री भी। फिर सुबह का समय था। वडोदरा का पूरा प्लेटफार्म यात्रियों से भरा पडा था। ट्रेन आई तो यह भी पूरी भरी थी। फिर बहुत से यात्री इसमें से उतरे, तब जाकर हमें चढने की जगह मिली। एक बार वडोदरा से चली तो सीधे मियागाम करजन जाकर ही रुकी। यहां ट्रैफिक इंचार्ज मिले - चौहान साहब। अपने कार्यालय में ही नाश्ता मंगा रखा था। यहां नैरोगेज के तीन प्लेटफार्म हैं। एक लाइन डभोई और चांदोद जाती है और एक लाइन चोरन्दा जंक्शन। चोरन्दा से फिर दो दिशाओं में लाइनें हैं- मालसर और मोटी कोरल। लेकिन इन ट्रेनों की समय सारणी ऐसी है कि चांदोद से लेकर मालसर और मोटी कोरल की 116 किलोमीटर की दूरी को आप एक दिन में तय नहीं कर सकते। इसलि

जम्बूसर-प्रतापनगर नैरोगेज यात्रा और रेल संग्रहालय

10 मार्च 2016 दहेज वैसे तो एक औद्योगिक क्षेत्र है, बन्दरगाह भी है लेकिन है बिल्कुल उजाड सा। यहां हाल ही में विकास शुरू हुआ है, इसलिये काम होता-होता ही होगा। वैसे भी पूरे देश के औद्योगिक क्षेत्र एक जैसे ही दिखते हैं। मेन चौराहे पर एक-डेढ घण्टे खडा रहा, तब जम्बूसर की बस आई। यहां चौराहे पर कुछ दुकानें थीं, जहां बेहद स्वादिष्ट पकौडियां मिल रही थीं। अक्सर स्वादिष्ट भोजन दूर-दराज के इन इलाकों में मिल जाता है। वो भी बहुत सस्ते में। साढे ग्यारह बजे मैं जम्बूसर पहुंच गया। सुबह जल्दी उठा था, दो घण्टे की नींद बस में पूरी कर ली। वैसे तो मार्च का महीना था लेकिन जम्बूसर में काफी गर्मी थी। स्टेशन के पास ही एक होटल था, इसमें 90 रुपये की एक गुजराती थाली मिली। इसके साथ छाछ का गिलास ले लिया। इसे खाने के बाद रात में डिनर की भी आवश्यकता नहीं पडी। ट्रेन आने में अभी दो घण्टे बाकी थे, इसलिये स्टेशन पर ही एक बेंच पर जाकर सो गया।

अंकलेश्वर-राजपीपला और भरूच-दहेज ट्रेन यात्रा

9 मार्च 2016 तो मैं पौने दो बजे उमरपाडा में था। स्टेशन से बाहर आकर छोटे से तिराहे पर पहुंचा। दो मिनट बाद एक बाइक वाले को हाथ दिया और तीन किलोमीटर दूर केवडी पहुंच गया। गुजरात के इस सुदूरस्थ स्थान पर भी टू-लेन की शानदार सडक बनी थी। बाइक वाला लडका अपनी धुन में गुजराती में कुछ कहता रहा, मैं ह्म्म्म-ह्म्म्म करता गया। पता नहीं उसे कैसे पता चला कि मुझे केवडी उतरना है, उसने तिराहे पर उतार दिया। हां, शायद गुजराती में उसने मुझसे पूछा होगा, मैंने हम्म्म कहकर उसे उत्तर दे दिया। वो सीधा चला गया, मुझे बायीं तरफ वाली सडक पर जाना था। जाते ही वाडी की जीप भरी खडी मिल गई। एक सवारी की कमी थी, वो मैंने पूरी कर दी। हिन्दी में बात हुई। उसने परदेसी का सम्मान करते हुए एक स्थानीय सवारी को पीछे भेजकर मुझे सबसे आगे बैठा दिया। यहां से वाडी 12 किलोमीटर दूर है। कुछ दूर तो सडक रेलवे लाइन के साथ-साथ है, फिर दूर होती चली जाती है। इसी सडक पर गुजरात रोडवेज की एक बस ने हमें ओवरटेक किया। मुझे लगा कि कहीं यह अंकलेश्वर की बस तो नहीं लेकिन बाद में पता चला कि यह उमरपाडा से सूरत जाने वाली बस थी। यह बस वाडी से बायें मुड गई, मु

कोसम्बा से उमरपाडा नैरोगेज ट्रेन यात्रा

9 मार्च 2016 मुम्बई से आने वाली अहमदाबाद पैसेंजर आधा घण्टा लेट थी लेकिन इतनी लेट भी नहीं थी कि मुझे कोसम्बा पहुंचने में विलम्ब हो जाये। कोसम्बा से मेरी उमरपाडा वाली नैरोगेज की ट्रेन सुबह साढे नौ बजे थी और मैं साढे आठ बजे ही कोसम्बा पहुंच गया। टिकट लिया और भरूच से आने वाले नीरज जी का इंतजार करने लगा। विमलेश चन्द्र जी के बारे में मैंने पिछली पोस्ट में भी बताया था। इस यात्रा में मुझे कोई दिक्कत न हो, इस बात का ख्याल सैकडों किलोमीटर दूर भावनगर में बैठे विमलेश जी ने खूब रखा। कार्यक्रम उन्हें मालूम ही था - इसलिये कब कहां मुझे होना है, इसे भी वे भली-भांति जानते थे। इसी का नतीजा था कि यहां सी.एण्ड.डब्लू. में वरिष्ठ खण्ड अभियन्ता नीरज जी मिले। नीरज जी को भरूच से आना था और वे वडोदरा-भिलाड एक्सप्रेस से आये। सुबह का समय था और कोसम्बा के एक तरफ भरूच है और एक तरफ सूरत - खूब भीड होना लाजिमी था। भिलाड एक्सप्रेस चली गई तो पीछे-पीछे ही भुज-बान्द्रा आ गई और सारी भीड को उठाकर ले गई। कोसम्बा में अब जो थोडे से ही यात्री बचे थे, वे प्लेटफार्म नम्बर तीन पर थे और मुझे उनके साथ यात्रा करनी थी।

बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा

7 मार्च 2016 के दिन यह यात्रा आरम्भ की। मेरा मतलब दिल्ली से चल पडा। आठ दिनों की यह यात्रा थी जिसमें पश्चिम रेलवे की वडोदरा और मुम्बई डिवीजनों की सभी नैरो गेज लाइनों को देखना था और रविवार वाले दिन मुम्बई लोकल में घूमना था। सतपुडा नैरोगेज के बन्द हो जाने के बाद यह इलाका नैरोगेज का सबसे ज्यादा घनत्व वाला इलाका हो गया है। मुम्बई डिवीजन में तो खैर एक ही लाइन है लेकिन वडोदरा डिवीजन में नैरोगेज लाइनों की भरमार है। मैंने शुरूआत मुम्बई डिवीजन से ही करने की सोची यानी बिलीमोरा-वघई लाइन से। कई दिन लगाये इन आठ दिनों के कार्यक्रम को बनाने में और एक-एक मिनट का इस्तेमाल करते हुए जो योजना बनी, वो भी फुलप्रूफ नहीं थी। उसमें भी एक पेंच फंस गया। मैंने इस कार्यक्रम को बिल्कुल एक आम यात्री के नजरिये से बनाया था। उसी हिसाब से अलग-अलग स्टेशनों पर डोरमेट्री में रुकना भी बुक कर लिया। लेकिन मियागाम करजन से सुबह 06.20 बजे जो चांदोद की ट्रेन चलती है, उसे पकडने के लिये मुझे उस रात करजन ही रुकना पडेगा। यहां डोरमेट्री नहीं है और शहर भी कोई इतना बडा नहीं है कि कोई होटल मिल सके। फिर भरूच और वडोदरा से भी इस समय कोई कने

जाटराम की पहली पुस्तक: लद्दाख में पैदल यात्राएं

पुस्तक प्रकाशन की योजना तो काफी पहले से बनती आ रही थी लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती थी। सबसे बडी समस्या आती थी पैसों की। मैंने कई लेखकों से सुना था कि पुस्तक प्रकाशन में लगभग 25000 रुपये तक खर्च हो जाते हैं और अगर कोई नया-नवेला है यानी पहली पुस्तक प्रकाशित करा रहा है तो प्रकाशक उसे कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते। मैंने कईयों से पूछा कि अगर ऐसा है तो आपने क्यों छपवाई? तो उत्तर मिलता कि केवल इस तसल्ली के लिये कि हमारी भी एक पुस्तक है। फिर दिसम्बर 2015 में इस बारे में नई चीज पता चली- सेल्फ पब्लिकेशन। इसके बारे में और खोजबीन की तो पता चला कि यहां पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। इसमें पुस्तक प्रकाशन का सारा नियन्त्रण लेखक का होता है। कई कम्पनियों के बारे में पता चला। सभी के अलग-अलग रेट थे। सबसे सस्ते रेट थे एजूक्रियेशन के- 10000 रुपये। दो चैप्टर सैम्पल भेज दिये और अगले ही दिन उन्होंने एप्रूव कर दिया कि आप अच्छा लिखते हो, अब पूरी पुस्तक भेजो। मैंने इनका सबसे सस्ता प्लान लिया था। इसमें एडिटिंग शामिल नहीं थी।

जनवरी में नागटिब्बा-3

26 जनवरी 2016 सुबह उठे तो आसमान में बादल मिले। घने बादल। पूरी सम्भावना थी बरसने की। और बर्फबारी की भी। आखिर जनवरी का महीना है। जितना समय बीतता जायेगा, उतनी ही बारिश की सम्भावना बढती जायेगी। इसलिये जल्दी उठे और जल्दी ही नागटिब्बा के लिये चल भी दिये। इतनी जल्दी कि जिस समय हमने पहला कदम बढाया, उस समय नौ बज चुके थे। 2620 मीटर की ऊंचाई पर हमने टैंट लगाया था और नागटिब्बा 3020 मीटर के आसपास है। यानी 400 मीटर ऊपर चढना था और दूरी है 2 किमी। इसका मतलब अच्छी-खासी चढाई है। पूरा रास्ता रिज के साथ-साथ है। ऊपर चढते गये तो थोडी-थोडी बर्फ मिलने लगी। एक जगह बर्फ में किसी हथेली जैसे निशान भी थे। निशान कुछ धूमिल थे और पगडण्डी के पास ही थे। हो सकता है कि भालू के पंजों के निशान हों, या यह भी हो सकता है कि दो-चार दिन पहले किसी इंसान ने हथेली की छाप छोड दी हो।

जनवरी में नागटिब्बा-2

25 जनवरी 2016 साढे आठ बजे हम सोकर उठे। हम मतलब मैं और निशा। बाकी तो सभी उठ चुके थे और कुछ जांबाज तो गर्म पानी में नहा भी चुके थे। सहगल साहब के ठिकाने पर पहुंचे तो पता चला कि वे चारों मनुष्य नागलोक के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। उन्हें आज ऊपर नहीं रुकना था, बल्कि शाम तक यहीं पन्तवाडी आ जाना था, इसलिये वे जल्दी चले गये। जबकि हमें आज ऊपर नाग मन्दिर के पास ही रुकना था, दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये खूब सुस्ती दिखाई। मेरी इच्छा थी कि सभी लोग अपना अपना सामान लेकर चलेंगे। दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये शाम तक ठिकाने पर पहुंच ही जायेंगे। अगर न भी पहुंचते, तो रास्ते में कहीं टिक जाते और कल वहीं सब सामान छोडकर खाली हाथ नागटिब्बा जाते और वापसी में सामान उठा लेते। लेकिन ज्यादातर सदस्यों की राय थी कि टैंटों और स्लीपिंग बैगों के लिये और बर्तन-भाण्डों और राशन-पानी के लिये एक खच्चर कर लेना चाहिये। सबकी राय सर-माथे पर। 700 रुपये रोज अर्थात 1400 रुपये में दो दिनों के लिये खच्चर होते देर नहीं लगी। जिनके यहां रात रुके थे, वे खच्चर कम्पनी भी चलाते हैं। बडी शिद्दत से उन्होंने सारा सामान बेचारे जानवर की पीठ पर ब

जनवरी में नागटिब्बा-1

24 जनवरी 2016 दिसम्बर 2015 की लगभग इन्हीं तारीखों में हम तीन जने नागटिब्बा गये थे। वह यात्रा क्यों हुई थी, इस बारे में तो आपको पता ही है। मेरा काफी दिनों से एक यात्रा आयोजित करने का मन था। नवम्बर में ही योजना बन गई थी कि क्रिसमस के आसपास और गणतन्त्र दिवस के आसपास दो ग्रुपों को नागटिब्बा लेकर जाऊंगा। नागटिब्बा लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई पर है और यहां अच्छी खासी बर्फ पड जाया करती है। लेकिन इस बार पूरे हिमालय में कम बर्फबारी हुई है तो नागटिब्बा भी इससे अछूता नहीं रहा। दिसम्बर में हमें बर्फ नहीं मिली। फिर हमने देवलसारी वाला रास्ता पकड लिया और खूब पछताये। उस रास्ते में कहीं भी पानी नहीं है। हम प्यासे मर गये और आखिरकार नागटिब्बा तक नहीं पहुंच सके। वापस पंतवाडी की तरफ उतरे। इस रास्ते में खूब पानी है, इसलिये तय कर लिया कि जनवरी वाली यात्रा पन्तवाडी के रास्ते ही होगी। लेकिन पन्तवाडी की तरफ मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा डराया, वो था उस रास्ते का ढाल। इसमें काफी ज्यादा ढाल है। नीचे उतरने से ही खूब पता चल रहा था। फिर अगर जनवरी में इस रास्ते से आयेंगे तो इसी पर चढना पडेगा। यही सोच-सोचकर मेरी सांस रुकी

जनवरी में स्पीति: काजा से दिल्ली वापस

10 जनवरी 2016 कल की बात है। जब पौने पांच बजे रीकांग पीओ से बस आई तो इसमें से तीन-चार यात्री उतरे। एक को छोडकर सभी स्थानीय थे। वो एक बाहर का था और उसकी कमर पर बडा बैग लटका था और गले में कैमरा। उस समय हम चाय पी रहे थे। बातचीत हुई, तो वह चण्डीगढ का निकला। जनवरी में स्पीति घूमने आया था। चौबीस घण्टे पहले उसी बस से चण्डीगढ से चला था, जिससे हम कुछ दिन पहले चण्डीगढ से रीकांग पीओ आये थे। वह बस सुबह सात बजे रीकांग पीओ पहुंचती है और ठीक इसी समय वहां से काजा की बस चल देती है। वह पीओ नहीं रुका और सीधे काजा वाली बस में बैठ गया। इस प्रकार चण्डीगढ से चलकर बस से चौबीस घण्टे में वह काजा आ गया। उसकी क्या हालत हो रही होगी, हम समझ रहे थे। वैसे तो उसकी काजा में रुकने की बुकिंग थी, हालांकि भुगतान नहीं किया था लेकिन हमसे बात करके उसने हमारे साथ रुकना पसन्द किया। तीनों एक ही कमरे में रुक गये। मकान मालकिन ने 200 रुपये अतिरिक्त मांगे। रात खाना खाने के लिये मालकिन ने अपने कमरे में ही बुला लिया। अंगीठी के कारण यह काफी गर्म था और मन कर रहा था कि खाना खाकर यहीं पीछे को लुढक जायें। लेकिन मैं यहां जिस बात की तारीफ क

जनवरी में स्पीति: किब्बर में हिम-तेंदुए की खोज

9 जनवरी 2016 कल जब हम दोरजे साहब के यहां बैठकर देर रात तक बातें कर रहे थे तो हिम तेंदुए के बारे में भी बातचीत होना लाजिमी था। किब्बर हिम तेंदुए के कारण प्रसिद्ध है। किब्बर के आसपास खूब हिम तेंदुए पाये जाते हैं। यहां तक कि ये गांव में भी घुस आते हैं। हालांकि हिम तेंदुआ बेहद शर्मीला होता है और आदमी से दूर ही दूर रहता है लेकिन गांव में आने का उसका मकसद भोजन होता है। यहां कुत्ते और भेडें आसानी से मिल जाते हैं। दोरजे साहब जिन्हें हम अंकल जी कहने लगे थे, का घर नाले के बगल में है। किब्बर इसी नाले के इर्द-गिर्द बसा है। घर में नाले की तरफ कोई भी रोक नहीं है, जिससे कोई भी जानवर किसी भी समय घर में घुस सकता है। कमरों में तो अन्दर से कुण्डी लग जाती है, लेकिन बाहर बरामदा और आंगन खुले हैं। अंकल जी ने बताया कि रात में तेंदुआ और रेड फॉक्स खूब इधर आते हैं। आजकल तो बर्फ भी पडी है। उन्होंने दावे से यह भी कहा कि सुबह आपको इन दोनों जानवरों के पदचिह्न यहीं बर्फ में दिखाऊंगा। यह बात हमें रोमांचित कर गई।

जनवरी में स्पीति: किब्बर भ्रमण

8 जनवरी 2016 बारह बजे के आसपास जब किब्बर में प्रवेश किया तो बर्फबारी बन्द हो चुकी थी, लेकिन अब तक तकरीबन डेढ-दो इंच बर्फ पड चुकी थी। स्पीति में इतनी बर्फ पडने का अर्थ है कि सबकुछ सफेद हो गया। मौसम साफ हो गया। इससे दूर-दूर तक स्पीति की सफेदी दिखने लगी। गजब का नजारा था। किब्बर लगभग 4200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। इसे दुनिया का सबसे ऊंचा गांव माना जाता है। हालांकि लद्दाख में एकाध गांव इससे भी ऊंचा मिल जायेगा, लेकिन फिर भी यह सबसे ऊंचे गांवों में से तो है ही। यहां पहला कदम रखते ही एक सूचना लिखी दिखी - “आमतौर पर यह परांग ला दर्रा (18800 फीट) माह जून से सितम्बर के बीच खुला रहता है। फिर भी जाने से पहले इसकी सूचना प्रशासन काजा से जरूर लें (दूरभाष संख्या 1906-222202) तथा खास कर 15 सितम्बर के पश्चात दर्रे को पार करने की कोशिश घातक हो सकती है। यदि आप स्थानीय प्रदर्शक को साथ लें तो यह आपकी सुरक्षा के लिये उचित होगा।”

जनवरी मे स्पीति: की गोम्पा

8 जनवरी 2016 सुबह उठा तो सबसे पहले बाहर रखे थर्मामीटर तक गया। रात न्यूनतम तापमान माइनस 6.5 डिग्री था। कल माइनस 10 डिग्री था, इसलिये आज उतनी ठण्ड नहीं थी। आपके लिये एक और बात बता दूं। ये माइनस तापमान जरूर काफी ठण्डा होता है लेकिन अगर आपको बताया न जाये, तो आप कभी भी पता नहीं लगा सकते कि तापमान माइनस में है। महसूस ही नहीं होता। कम से कम मुझे तो माइनस दस और प्लस पांच भी कई बार एक समान महसूस होते हैं। सुमित को भी ज्यादा ठण्ड नहीं लग रही थी। हां, आज एक बात और भी थी। बर्फ पड रही थी। आसपास की पहाडियां और धरती भी सफेद हो गई थी। लेकिन जैसी स्पीति में बारिश होती है, वैसी ही बर्फबारी। एक-दो इंच तो छोडिये, आधा सेंटीमीटर भी बर्फ नहीं थी। लेकिन कम तापमान में यह बर्फ पिघली नहीं और इसने ही सबकुछ सफेद कर दिया था। बडा अच्छा लग रहा था। सुमित ने परसों पहली बार हिमालय देखा था, कल पहली बार बर्फ देखी और आज पहली बार बर्फबारी। वो तो स्वर्ग-वासी होने जैसा अनुभव कर रहा होगा।

जनवरी में स्पीति - बर्फीला लोसर

7 जनवरी 2016 सुबह उठा तो देखा कि सुमित कमरे में नहीं था। वो जरूर बाहर टहलने गया होगा। कुछ देर बाद वो वापस आ गया। बोला कि वो उजाला होने से पहले ही उठ गया था और बाहर घूमने चला गया। मैं भी कपडे-वपडे पहनकर बाहर निकला। असल में मुझे बिल्कुल भी ठण्ड नहीं लग रही थी। रात मैं कच्छे-बनियान में ही रजाई ओढकर सो गया था। स्पीति में जनवरी के लिहाज से उतनी ठण्ड नहीं थी, या फिर मुझे नहीं लग रही थी। मेरे पास एक थर्मामीटर था जिसे मैंने रात बाहर ही रख दिया था। अब सुबह आठ बजे तो ध्यान नहीं यह कितना तापमान बता रहा था लेकिन रात का न्यूनतम तापमान शून्य से दस डिग्री नीचे तक चला गया था। अभी भी शून्य से कम ही था।

जनवरी में स्पीति - रीकांग पीओ से काजा

6 जनवरी 2016 रीकांग पीओ से काजा की बस सुबह सात बजे चलती है। मैं छह बजे ही बस अड्डे पर पहुंच गया। जाते ही टिकट ले लिये- आगे की ही सीटें देना। सीट नम्बर 4 और 5 मिल गईं। ये ड्राइवर के बिल्कुल पीछे वाली सीटें होती हैं। सुमित के लिये तो सबकुछ नया था ही, मेरे लिये भी यह इलाका नया ही था। बस अड्डे की कैण्टीन में ही आलू के परांठे खाये। तापमान तो सुबह सवेरे माइनस में ही था, इसलिये हम कम्बल ओढे हुए थे। छोटी सी कैण्टीन में सामानों की अधिकता में सुमित से एक स्थानीय टकरा गया और स्थानीय के हाथ से चाय का कांच का कप नीचे गिर गया और टूट गया। वो बडबडाने लगा लेकिन कैण्टीन मालिक ने तुरन्त मामला रफादफा कर दिया। ठीक सात बजे बस चल पडी। जूते और दस्ताने पहनने के बावजूद भी उंगलियों में ठण्ड लग रही थी। पैरों पर कम्बल डाल लिया और हाथ उसमें घुसा लिये। बडा आराम मिला। बस अड्डे के सामने डाकखाना है। इतनी सुबह भी डाकखाना खुला था। काजा जाने वाली एकमात्र बस में खूब सारी डाक डाल दी गईं और उनकी लिस्ट कण्डक्टर को पकडा दी। गांव आते रहेंगे और कण्डक्टर लिस्ट में देख-देखकर सामान बाहर डालता जायेगा। दो-तीन अखबार ‘रोल’ बनाकर ड्राइ

जनवरी में स्पीति- दिल्ली से रीकांग पीओ

जनवरी में वैसे तो दक्षिण भारत की यात्रा उचित रहती है लेकिन हमने स्पीति जाने का विचार किया। हम यानी मैं और सुमित। डॉ. सुमित फ्रॉम इन्दौर। लेकिन स्पीति जाने से पहले हमारे मन में महाराष्ट्र में पश्चिमी घाट में बाइक चलाने का भी विचार बना था। मैं इन्दौर ट्रेन से पहुंचता और वहां से हम दोनों बाइक उठाकर महाराष्ट्र के लिये निकल जाते। इसी दौरान कल्सुबाई आदि चोटियों तक ट्रैकिंग की भी योजना बनी। ट्रैकिंग का नाम सुनते ही सुमित भी खुश हो गया। लेकिन सुमित की वास्तविक खुशी थी हिमालय जाने में। उधर मेरा भी मन बदलने लगा। महाराष्ट्र के इस इलाके में मानसून में जाना सर्वोत्तम रहता है, जब हरियाली चरम पर होती है। आखिरकार मैंने अपना इन्दौर का आरक्षण रद्द करा दिया और सुमित की दिल्ली तक की सीट बुक कर दी।

हर्षिल-गंगोत्री यात्रा (शिवराज सिंह)

रेलवे में सीनियर इंजीनियर शिवराज सिंह जी ने अपनी हर्षिल और गंगोत्री यात्रा का वर्णन भेजा है। हो सकता है कि यह वृत्तान्त आपको छोटा लगे लेकिन शिवराज जी ने पहली बार लिखा है, इसलिये उनका यह प्रयास सराहनीय है। मेरा नाम शिवराज सिंह है। उत्तर प्रदेश के शामली जिले से हूँ। शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर के डीएवी कालेज व गाँधी पॉलीटेक्निक में हुई। वर्तमान मे उत्तर रेलवे के जगाधरी वर्कशॉप में सीनियर सेक्शन इंजीनियर के पद पर कार्यरत हूँ। बचपन से ही घूमने फिरने का शौक रहा है। रेलवे मे काम करते समय घूमने का काफ़ी मौका मिलता है। यात्रा ब्लॉग पढ़ने की शुरुआत आपके ब्लॉग से की। मजा आया क्योंकि अपनी जानी-पहचानी भाषा में लिखा था। पहले कभी लिखने के विषय में नही सोचा, परन्तु आपके ब्लॉग को पढ़कर कोशिश कर रहा हूँ। जून 2015 मे गंगोत्री घूमने गया था। साथ मे बेटा व तीन नौजवान भानजे भी थे। शुरुआत मे केवल मसूरी तक जाने का प्रोग्राम था, परंतु वहाँ की भीड़-भाड़ मे मजा नही आया औऱ एक भानजे ने जो कि नियमित रूप से उत्तराखण्ड के पहाडी इलाकों मे घूमता रहता है, हर्षिल का जिक्र किया जिसके विषय मे नेट पर पढ़ा था कि वहाँ पर राजक

जबलपुर से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा

27 नवम्बर 2015 ट्रेन नम्बर 51190... इलाहाबाद से आती है और इटारसी तक जाती है। इलाहाबाद से यह गाडी शाम सात बजे चलती है और अगली सुबह 06:10 बजे जबलपुर आ जाती है। मैंने पांच बजे का अलार्म लगा लिया था। अलार्म बजा और मैं उठ भी गया। देखा कि अभी ट्रेन कटनी ही पहुंची है यानी एक घण्टा लेट चल रही है तो फिर से छह बजे का अलार्म लगाकर सो गया। फिर छह बजे उठा, ट्रेन सिहोरा रोड के आसपास थी। अब मुझे भी और लेट होने की आवश्यकता नहीं थी। नहाकर डोरमेट्री छोड दी। बाहर इलेक्ट्रॉनिक सूचना-पट्ट बता रहा था कि यह ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक पर आयेगी। मैंने टिकट लिया और प्लेटफार्म एक पर कटनी साइड में आखिर में बैठ गया।

जम्मू यात्रा - 2016 (सुनील गायकवाड)

मित्र सुनील गायकवाड ने अपनी जम्मू यात्रा का संक्षिप्त विवरण ‘मुसाफिर हूं यारों’ में प्रकाशन के लिये भेजा है। सुनील जी पुणे के रहने वाले हैं। हिन्दी में अक्सर नहीं लिखते। उनकी फेसबुक पर भी मराठी ही मिलती है। गैर-हिन्दी भाषी होने के बावजूद भी आपने इतना बडा यात्रा-विवरण हिन्दी में लिखा है, इसके लिये आप शाबाशी के पात्र हैं। आपने हालांकि बहुत सारी गलतियां कर रखी थीं, जिन्हें दूर करके आपका वृत्तान्त प्रकाशित किया जा रहा है। “मंज़िल तो मिल ही जायेगी भटकते हुए ही सही, गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं।” नमस्कार मित्रों, मेरा नाम सुनील गायकवाड़ है। मैं पुणे, महाराष्ट्र का रहने वाला हूं। सोमनाथ, गिरनार पर्वत, सूरत, लखनऊ, कोलकाता, भुवनेश्वर, जगन्नाथ पुरी, सूर्य मंदिर, चेन्नई, तिरुपति, कन्याकुमारी, अमृतसर, गोल्डन टेम्पल, वाघा बॉर्डर; इन स्थानों पर घूम कर आया हूं। अप्रैल 2015 में लेह-लद्दाख यात्रा के बारे में जानकारी के लिए गूगल पर सर्च कर रहा था, तो "मुसाफिर हूँ यारों" - लद्दाख साइकिल यात्रा का आगाज - ये ब्लॉग मिल गया। जब मैंने पूरा ब्लॉग देख लिया तो समझ में आया कि मेरे हाथ में

सतपुडा नैरो गेज में आखिरी बार-2

25 नवम्बर 2015 आज का लक्ष्य था नागपुर और नागभीड के बीच नैरोगेज ट्रेन में यात्रा करना। यह हालांकि सतपुडा नैरोगेज तो नहीं कही जा सकती लेकिन दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे की नागपुर डिवीजन की एक प्रमुख नैरोगेज लाइन है, इसलिये लगे हाथों इस पर भी यात्रा करने की योजना बन गई। यह लाइन फिलहाल गेज परिवर्तन के लिये बन्द नहीं हो रही। नागपुर से नागभीड तक दिनभर में तीन ट्रेनें चलती हैं - सुबह, दोपहर और शाम को। शाम वाली ट्रेन मेरे किसी काम की नहीं थी क्योंकि इसे नागभीड तक पहुंचने में अन्धेरा हो जाना था और अन्धेरे में मैं इस तरह की यात्राएं नहीं किया करता। इसलिये दो ही विकल्प मेरे पास थे - सुबह वाली ट्रेन पकडूं या दोपहर वाली। काफी सोच-विचार के बाद तय किया कि दोपहर वाली पकडूंगा। तब तक एक चक्कर रामटेक का भी लगा आऊंगा। रामटेक के लिये एक अलग ब्रॉडगेज लाइन है जो केवल रामटेक तक ही जाती है। आज नहीं तो कभी न कभी इस लाइन पर जाना ही था। आज चला जाऊंगा तो भविष्य में नहीं जाना पडेगा। सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर नागपुर से ट्रेन नम्बर 58810 चलती है रामटेक के लिये। मैं टिकट लेकर समय से पहले ही प्लेटफार्म नम्बर चार पर पहु

सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी बार- छिन्दवाडा से नागपुर

   24 नवम्बर 2015    ट्रेन नम्बर 58845 पहले भारत की सबसे लम्बी नैरो गेज की ट्रेन हुआ करती थी - जबलपुर से नागपुर तक। यह एकमात्र ऐसी नैरो गेज की ट्रेन थी जिसमें शयनयान भी था। आरक्षण भी होता था। नैरो गेज में शयनयान का डिजाइन कैसा होता होगा - यह जानने की बडी इच्छा थी। कैसे लेटते होंगे उस छोटी सी ट्रेन में पैर फैलाकर? अब जबकि पिछले कुछ समय से जबलपुर से नैनपुर वाली लाइन बन्द है तो यह ट्रेन नैनपुर से नागपुर के बीच चलाई जाने लगी। नैनपुर से चलकर सुबह आठ बजे यह छिन्दवाडा आती है और फिर नागपुर की ओर चल देती है। मैंने इसमें सीटिंग का आरक्षण करा रखा था ताकि इसके आधार पर नागपुर में डोरमेट्री ऑनलाइन बुक कर सकूं।    स्टेशन के बाहर बायें हाथ की तरफ कुछ दुकानें हैं। सुबह वहां गर्मागरम जलेबी, समोसे और पोहा मिला। चाय के साथ सब खा लिया - नाश्ता भी हो गया और लंच भी। बाकी कोई कसर रह जायेगी तो रास्ते में खाते-पीते रहेंगे।

सतपुडा नैरो गेज में आखिरी यात्रा-1

   नवम्बर 2015 के पहले सप्ताह में जब पता चला कि सतपुडा नैरो गेज हमेशा के लिये बन्द होने जा रही है तो मन बेचैन हो गया। बेचैन इसलिये हो गया कि इस रेल नेटवर्क के काफी हिस्से पर मैंने अभी तक यात्रा नहीं की थी। लगभग पांच साल पहले मार्च 2011 में मैंने छिन्दवाडा से नैनपुर और बालाघाट से जबलपुर तक की यात्रा की थी। छिन्दवाडा से नागपुर और नैनपुर से मण्डला फोर्ट की लाइन अभी भी मेरी अनदेखी बची हुई थी। अब जब यह बन्द होने लगी तो अपने स्तर पर कुछ खोजबीन और की तो पाया कि यह लाइन असल में 31 अक्टूबर 2015 को ही बन्द हो जानी थी लेकिन इसे एक महीने तक के लिये बढा दिया गया है। एक महीने तक बढाने का अर्थ था कि मेरे लिये इसमें यात्रा करने का आखिरी मौका आखिरी सांसें गिन रहा है। 16 नवम्बर को दिल्ली से निकलने की योजना बन गई। कानपुर में रहने वाले मित्र आनन्द शेखावत को पता चला तो वे भी चलने को राजी हो गये। सभी आवश्यक आरक्षण और रिटायरिंग रूम की भी बुकिंग हो गई।    लेकिन जब 16 नवम्बर को नई दिल्ली केरल एक्सप्रेस पकडने गया तो छठ के कारण अन्दर से बाहर तक बिल्कुल ठसाठस भरे नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन में ऐसा फंसा कि केरल एक्

नागटिब्बा ट्रैक-2

27 दिसम्बर 2015    सुबह उठे। बल्कि उठे क्या, पूरी रात ढंग से सो ही नहीं सके। स्थानीय लडकों ने शोर-शराबा और आपस में गाली-गलौच मचाये रखी। वे बस ऐसे ही मुंह उठाकर इधर आ गये थे। जैसे-जैसे रात बीतती गई, ठण्ड भी बढती गई। उनके पास न ओढने को कुछ था और न ही बिछाने को। वे ठण्ड से नहीं सो सके, हम शोर-शराबे से नहीं सो सके। हमने उन्हें परांठे और एक कम्बल दे दिया था। नहीं तो क्या पता वे हमारे साथ भी गाली-गलौच करने लगते। रात में पता नहीं किस समय उन्होंने अपनी बनाई झौंपडी भी जला दी।    अभी तक मैं यही मानता आ रहा था कि पन्तवाडी से आने वाला रास्ता भी यहीं आकर मिलता है। हिमाचल वालों से भी मैंने यही कहा कि मेरी जानकारी के अनुसार पन्तवाडी वाला रास्ता आकर मिलता है, इसलिये हमें अपने टैंट आदि आगे नागटिब्बा तक ले जाने की आवश्यकता नहीं है। खाली हाथ जायेंगे और वापस यहां आकर सामान उठाकर नीचे पन्तवाडी चले जायेंगे। इसलिये पहले हिमाचल वालों ने और बाद में मैंने पन्तवाडी की तरफ उतरती पगडण्डी ढूंढी, लेकिन कोई पगडण्डी नहीं मिली। एक हल्की सी पगडण्डी धार के नीचे की तरफ अवश्य जा रही थी, लेकिन यह पन्तवाडी वाला रास्ता नहीं ह

नागटिब्बा ट्रेक-1

   नागटिब्बा जाना तो अपने घर की बात लगती थी। वो रहा देहरादून, वो रहा मसूरी और वो रहा नागटिब्बा। फिर भी कई सालों तक बस सोचते ही रहे, लेकिन जाना नहीं हो पाया। लेकिन इस बार कमर कस ली। नागटिब्बा समुद्र तल से 3000 मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है, इसलिये सर्दियों में अच्छी-खासी बर्फ गिर जाती है। कम दूरी का ट्रैक होने के कारण यह विण्टर ट्रैकों में भी अहम स्थान रखता है। यही सोचकर दिसम्बर में यहां जाने की योजना बनी।    मेरी बडे दिनों से इच्छा थी कि किसी ग्रुप को ट्रैकिंग पर लेकर जाऊं। एक बार इस बारे में अपने फेसबुक पेज पर भी लिखा था। इस बार की योजना थी कि क्रिसमस की छुट्टियों में एक ग्रुप को तो अवश्य तैयार कर लेना है। शुक्रवार का क्रिसमस था, उसके बाद शनिवार और फिर रविवार। किसी भी नौकरीपेशा के लिये यह एक शानदार संयोग होता है। इसलिये कोई सन्देह नहीं था कि ग्रुप नहीं बनेगा। खर्चे का अन्दाजा लगाया और आखिरकार तय हुआ कि दिल्ली से दिल्ली तक प्रति व्यक्ति 5000 रुपये और देहरादून से देहरादून तक 4000 रुपये लगेंगे। इसमें आना-जाना, रहना और खाना-पीना सब शामिल था। ग्रुप बडा हुआ तो दिल्ली से ही गाडी कर लें

रेलयात्रा सूची: 2016

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