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Showing posts from April, 2016

बिलीमोरा से वघई नैरोगेज रेलयात्रा

7 मार्च 2016 के दिन यह यात्रा आरम्भ की। मेरा मतलब दिल्ली से चल पडा। आठ दिनों की यह यात्रा थी जिसमें पश्चिम रेलवे की वडोदरा और मुम्बई डिवीजनों की सभी नैरो गेज लाइनों को देखना था और रविवार वाले दिन मुम्बई लोकल में घूमना था। सतपुडा नैरोगेज के बन्द हो जाने के बाद यह इलाका नैरोगेज का सबसे ज्यादा घनत्व वाला इलाका हो गया है। मुम्बई डिवीजन में तो खैर एक ही लाइन है लेकिन वडोदरा डिवीजन में नैरोगेज लाइनों की भरमार है। मैंने शुरूआत मुम्बई डिवीजन से ही करने की सोची यानी बिलीमोरा-वघई लाइन से। कई दिन लगाये इन आठ दिनों के कार्यक्रम को बनाने में और एक-एक मिनट का इस्तेमाल करते हुए जो योजना बनी, वो भी फुलप्रूफ नहीं थी। उसमें भी एक पेंच फंस गया। मैंने इस कार्यक्रम को बिल्कुल एक आम यात्री के नजरिये से बनाया था। उसी हिसाब से अलग-अलग स्टेशनों पर डोरमेट्री में रुकना भी बुक कर लिया। लेकिन मियागाम करजन से सुबह 06.20 बजे जो चांदोद की ट्रेन चलती है, उसे पकडने के लिये मुझे उस रात करजन ही रुकना पडेगा। यहां डोरमेट्री नहीं है और शहर भी कोई इतना बडा नहीं है कि कोई होटल मिल सके। फिर भरूच और वडोदरा से भी इस समय कोई कने

जाटराम की पहली पुस्तक: लद्दाख में पैदल यात्राएं

पुस्तक प्रकाशन की योजना तो काफी पहले से बनती आ रही थी लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती थी। सबसे बडी समस्या आती थी पैसों की। मैंने कई लेखकों से सुना था कि पुस्तक प्रकाशन में लगभग 25000 रुपये तक खर्च हो जाते हैं और अगर कोई नया-नवेला है यानी पहली पुस्तक प्रकाशित करा रहा है तो प्रकाशक उसे कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते। मैंने कईयों से पूछा कि अगर ऐसा है तो आपने क्यों छपवाई? तो उत्तर मिलता कि केवल इस तसल्ली के लिये कि हमारी भी एक पुस्तक है। फिर दिसम्बर 2015 में इस बारे में नई चीज पता चली- सेल्फ पब्लिकेशन। इसके बारे में और खोजबीन की तो पता चला कि यहां पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। इसमें पुस्तक प्रकाशन का सारा नियन्त्रण लेखक का होता है। कई कम्पनियों के बारे में पता चला। सभी के अलग-अलग रेट थे। सबसे सस्ते रेट थे एजूक्रियेशन के- 10000 रुपये। दो चैप्टर सैम्पल भेज दिये और अगले ही दिन उन्होंने एप्रूव कर दिया कि आप अच्छा लिखते हो, अब पूरी पुस्तक भेजो। मैंने इनका सबसे सस्ता प्लान लिया था। इसमें एडिटिंग शामिल नहीं थी।

जनवरी में नागटिब्बा-3

26 जनवरी 2016 सुबह उठे तो आसमान में बादल मिले। घने बादल। पूरी सम्भावना थी बरसने की। और बर्फबारी की भी। आखिर जनवरी का महीना है। जितना समय बीतता जायेगा, उतनी ही बारिश की सम्भावना बढती जायेगी। इसलिये जल्दी उठे और जल्दी ही नागटिब्बा के लिये चल भी दिये। इतनी जल्दी कि जिस समय हमने पहला कदम बढाया, उस समय नौ बज चुके थे। 2620 मीटर की ऊंचाई पर हमने टैंट लगाया था और नागटिब्बा 3020 मीटर के आसपास है। यानी 400 मीटर ऊपर चढना था और दूरी है 2 किमी। इसका मतलब अच्छी-खासी चढाई है। पूरा रास्ता रिज के साथ-साथ है। ऊपर चढते गये तो थोडी-थोडी बर्फ मिलने लगी। एक जगह बर्फ में किसी हथेली जैसे निशान भी थे। निशान कुछ धूमिल थे और पगडण्डी के पास ही थे। हो सकता है कि भालू के पंजों के निशान हों, या यह भी हो सकता है कि दो-चार दिन पहले किसी इंसान ने हथेली की छाप छोड दी हो।

जनवरी में नागटिब्बा-2

25 जनवरी 2016 साढे आठ बजे हम सोकर उठे। हम मतलब मैं और निशा। बाकी तो सभी उठ चुके थे और कुछ जांबाज तो गर्म पानी में नहा भी चुके थे। सहगल साहब के ठिकाने पर पहुंचे तो पता चला कि वे चारों मनुष्य नागलोक के लिये प्रस्थान कर चुके हैं। उन्हें आज ऊपर नहीं रुकना था, बल्कि शाम तक यहीं पन्तवाडी आ जाना था, इसलिये वे जल्दी चले गये। जबकि हमें आज ऊपर नाग मन्दिर के पास ही रुकना था, दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये खूब सुस्ती दिखाई। मेरी इच्छा थी कि सभी लोग अपना अपना सामान लेकर चलेंगे। दूरी ज्यादा नहीं है, इसलिये शाम तक ठिकाने पर पहुंच ही जायेंगे। अगर न भी पहुंचते, तो रास्ते में कहीं टिक जाते और कल वहीं सब सामान छोडकर खाली हाथ नागटिब्बा जाते और वापसी में सामान उठा लेते। लेकिन ज्यादातर सदस्यों की राय थी कि टैंटों और स्लीपिंग बैगों के लिये और बर्तन-भाण्डों और राशन-पानी के लिये एक खच्चर कर लेना चाहिये। सबकी राय सर-माथे पर। 700 रुपये रोज अर्थात 1400 रुपये में दो दिनों के लिये खच्चर होते देर नहीं लगी। जिनके यहां रात रुके थे, वे खच्चर कम्पनी भी चलाते हैं। बडी शिद्दत से उन्होंने सारा सामान बेचारे जानवर की पीठ पर ब

जनवरी में नागटिब्बा-1

24 जनवरी 2016 दिसम्बर 2015 की लगभग इन्हीं तारीखों में हम तीन जने नागटिब्बा गये थे। वह यात्रा क्यों हुई थी, इस बारे में तो आपको पता ही है। मेरा काफी दिनों से एक यात्रा आयोजित करने का मन था। नवम्बर में ही योजना बन गई थी कि क्रिसमस के आसपास और गणतन्त्र दिवस के आसपास दो ग्रुपों को नागटिब्बा लेकर जाऊंगा। नागटिब्बा लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई पर है और यहां अच्छी खासी बर्फ पड जाया करती है। लेकिन इस बार पूरे हिमालय में कम बर्फबारी हुई है तो नागटिब्बा भी इससे अछूता नहीं रहा। दिसम्बर में हमें बर्फ नहीं मिली। फिर हमने देवलसारी वाला रास्ता पकड लिया और खूब पछताये। उस रास्ते में कहीं भी पानी नहीं है। हम प्यासे मर गये और आखिरकार नागटिब्बा तक नहीं पहुंच सके। वापस पंतवाडी की तरफ उतरे। इस रास्ते में खूब पानी है, इसलिये तय कर लिया कि जनवरी वाली यात्रा पन्तवाडी के रास्ते ही होगी। लेकिन पन्तवाडी की तरफ मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा डराया, वो था उस रास्ते का ढाल। इसमें काफी ज्यादा ढाल है। नीचे उतरने से ही खूब पता चल रहा था। फिर अगर जनवरी में इस रास्ते से आयेंगे तो इसी पर चढना पडेगा। यही सोच-सोचकर मेरी सांस रुकी

जनवरी में स्पीति: काजा से दिल्ली वापस

10 जनवरी 2016 कल की बात है। जब पौने पांच बजे रीकांग पीओ से बस आई तो इसमें से तीन-चार यात्री उतरे। एक को छोडकर सभी स्थानीय थे। वो एक बाहर का था और उसकी कमर पर बडा बैग लटका था और गले में कैमरा। उस समय हम चाय पी रहे थे। बातचीत हुई, तो वह चण्डीगढ का निकला। जनवरी में स्पीति घूमने आया था। चौबीस घण्टे पहले उसी बस से चण्डीगढ से चला था, जिससे हम कुछ दिन पहले चण्डीगढ से रीकांग पीओ आये थे। वह बस सुबह सात बजे रीकांग पीओ पहुंचती है और ठीक इसी समय वहां से काजा की बस चल देती है। वह पीओ नहीं रुका और सीधे काजा वाली बस में बैठ गया। इस प्रकार चण्डीगढ से चलकर बस से चौबीस घण्टे में वह काजा आ गया। उसकी क्या हालत हो रही होगी, हम समझ रहे थे। वैसे तो उसकी काजा में रुकने की बुकिंग थी, हालांकि भुगतान नहीं किया था लेकिन हमसे बात करके उसने हमारे साथ रुकना पसन्द किया। तीनों एक ही कमरे में रुक गये। मकान मालकिन ने 200 रुपये अतिरिक्त मांगे। रात खाना खाने के लिये मालकिन ने अपने कमरे में ही बुला लिया। अंगीठी के कारण यह काफी गर्म था और मन कर रहा था कि खाना खाकर यहीं पीछे को लुढक जायें। लेकिन मैं यहां जिस बात की तारीफ क

जनवरी में स्पीति: किब्बर में हिम-तेंदुए की खोज

9 जनवरी 2016 कल जब हम दोरजे साहब के यहां बैठकर देर रात तक बातें कर रहे थे तो हिम तेंदुए के बारे में भी बातचीत होना लाजिमी था। किब्बर हिम तेंदुए के कारण प्रसिद्ध है। किब्बर के आसपास खूब हिम तेंदुए पाये जाते हैं। यहां तक कि ये गांव में भी घुस आते हैं। हालांकि हिम तेंदुआ बेहद शर्मीला होता है और आदमी से दूर ही दूर रहता है लेकिन गांव में आने का उसका मकसद भोजन होता है। यहां कुत्ते और भेडें आसानी से मिल जाते हैं। दोरजे साहब जिन्हें हम अंकल जी कहने लगे थे, का घर नाले के बगल में है। किब्बर इसी नाले के इर्द-गिर्द बसा है। घर में नाले की तरफ कोई भी रोक नहीं है, जिससे कोई भी जानवर किसी भी समय घर में घुस सकता है। कमरों में तो अन्दर से कुण्डी लग जाती है, लेकिन बाहर बरामदा और आंगन खुले हैं। अंकल जी ने बताया कि रात में तेंदुआ और रेड फॉक्स खूब इधर आते हैं। आजकल तो बर्फ भी पडी है। उन्होंने दावे से यह भी कहा कि सुबह आपको इन दोनों जानवरों के पदचिह्न यहीं बर्फ में दिखाऊंगा। यह बात हमें रोमांचित कर गई।